घाम, पानी, शीत, आंधी
वह सभी कुछ सह चुका है
वक्त का दरिया लबालब
उसके ऊपर बह चुका है।
पौ फ़टे से दिन ढले तक
अनगिनत जो देखे दृश्य
ज़र्रा ज़र्रा रक्त में मिल
धमनियों को गह चुका है।
थाम न पाती शिराएँ
जम गया जो स्नायुओं में
बरसों बरस जमता रहा
जाने क्या-क्या तह चुका है।
सफर के इस मोड़ पर
रीतती जाती हैं आँखें
कल्पना में था महल जो
वो कभी का ढह चुका है।
पर नहीं सब कुछ थमा है
देख कोंपल फिर हरी हैं
बस ज़रा सा नेह जल दे
प्राण इसमें नहीं चुका है।
लगे जब सब कुछ चुका सा
बहुत तब भी रहता है...
बात बस एक दृष्टि की है
मन मेरा यह कह चुका है।
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