Friday, September 11, 2009

अब छत पर बिस्तर नहीं लगते।

बरसों बीत गए
चाँदनी में नहाए हुए
अब तो छत पर
बिस्तर नहीं लगते।

रिमोट, प्लेस्टेशन...
हाथ हुए जबसे
दादा की कहानियाँ
भटक गईं रस्ते।

साँझ को मिलता नहीं
कोई चौबारों पर
आप ही आप
कट गए रस्ते।

बैठे हैं चुपचाप एयरकंडिशनर में
भूल गए गर्मी की मस्ती
और खेल में काटे
दिन हँसते हँसते।

वो गिट्टियाँ....
अक्कड़-बक्कड़
साँप-सीढ़ी, कैरम,
कँचों के मासूम से खेल।

बेकार कपड़ों से बनी गुड़ियाँ
मरी परंपराओं की तरह
बस मिलती हैं
म्यूजियम में।

दादी भी हाइटैक......
ला देती हैं बार्बी,

दादा के खिलौने
रिमोट से चलते।

हाल दिल के
दिलों में रहते हैं
औपचारिकताओं के हैं
नाते-रिश्ते।

आधी रात तक
बतियाता नहीं कोई
क्योंकि छत पर तो
अब बिस्तर नहीं लगते।

3 comments:

gyaneshwaari singh said...

ye bhi ek bhaut gahrayee si feel ki gayee abhivaykti hai..
sach kaha jab sabka alag alag kamara ban gya to
ek sath chaat pe koi sota nahi
aur batiyana bhi ab hota nahi

aap bahut sochti hai risto kolekra shayad meri hi tarah..:)

ach laga apke blog ko padke

Bhawna said...

Dhanyavad Sakhi ji apne sahi kaha apki kavitayen parh kar mujhe bhi yahi laga ki hamari soch samaan hai.

अवनीश एस तिवारी said...

सही है | समर्थन भी करता हूँ |

अवनीश तिवारी