
उलझ रहे है सिरे
कईं रोज़ से...
निकलना होगा
उन्हे सुलझाने को
निकलना होगा आज
एक लंबी यात्रा पर
इस कमरे से बाहर,
ए सी के कृत्रिम
सुखद अहसास से परे।
फाइलों से भरी अलमारियों
और उत्तर की प्रतीक्षा में
मुंह खोले पड़े पत्रों से परे
उन मुद्दों से परे
जिनके समाधान तो हैं
पर उसकी अधिकारीयत बौनी है
और समाधान सच्चे।
और सच्चे समाधानों
से कुछ भला हो भी तो
पहले पन्ने पर
तस्वीरें तो नहीं छपतीं
उसके लिए जरूरी है मेहनत,
एक अलग तरह की
बहुतों की आदत में
कुछ की सीमा से परे।
और फिर
वह पुरुष भी तो नहीं
जो कंधे पर हाथ धर
दो पैग में घोल कर पी जाए
या सिगरेट के धुएँ में उड़ा दे
ग्लानि, ठेस और पीड़ा
जो उपजती है
आदर्शों के सूखे पत्तों सा
कुचल जाने से,
निर्मम लांघते चले जाने से
दूसरों के सपने और अपनी हदें।
बाहर.........
क्योंकि अंतर की सिलवटें
चुभने लगी हैं,
क्योंकि नासूर बनने से पहले,
अबूझे, अनुत्तरित प्रश्नों
को हवा में तिरना है,
शायद, कभी-कहीं-कोई समाधान हो पाये!
बाहर.... क्योंकि
विपक्ष तो करता नहीं है
अंतर की सैर।
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