Monday, December 12, 2011

आशा की उर्वर भूमि में

आने वाले वर्ष,
तुम्हारे स्वागत में
कुछ करना होगा।

छोड़ चीथड़े द्वेषभाव के,
नव परिधानों में
सजना होगा

कुछ बंधन काटने होंगे,
स्वछंद, नील गगन में,
इक पंछी सम उड़ना होगा

आशाहीन दिशाभ्रमित जो,
हाथ पकड़ कर, राह दिखा कर
उनको गले लगाना होगा।

जग त्रास से बेबस जो,
सोये हुए स्वप्न हृदय में
उनको पुनः जगाना होगा

उँगलियाँ बहुत दिखा चुके,
क्या लेना कौन करे है क्या,
बस अपना आप परखना होगा।

घृणा बैर सब काट, फेंक कर
आशा की उर्वर भूमि में
स्नेह बिरवा इक रोपना होगा।

2 comments:

ashwini kumar vishnu said...

आशा की उर्वर भूमि में स्वप्न रोपने का ख़याल ही मन को छू लेता है। वर्तमान दौर ही कुछ ऐसा है कि हर कोई स्वयं को दिशाभ्रम की स्थिति में पाता है। ऐसे में घृणा बैर रूपी अवांछित खरपतवार-काँटे-कंटेलियों को निर्मूल कर "आशा की उर्वर भूमि में/ स्नेहबिरवा इक रोपना होगा" पंक्तियों का आग्रह बहुत सच्चा और अच्छा लगता है। सुखद एहसास जगाती सुन्दर कविता के लिए हार्दिक अभिनन्दन भावना जी!

ashwini kumar vishnu said...

आशा की उर्वर भूमि में स्वप्न रोपने का ख़याल ही मन को छू लेता है । वर्तमान दौर ही कुछ ऐसा है कि हर कोई स्वयं को दिशाभ्रम की स्थिति में फँसा, हतप्रभ-सा अनुभव करता है । ऐसे में घृणा-बैर रूपी खरपतवार-काँटे-कंटेलियों को निर्मूल कर "आशा की उर्वर भूमि में/ स्नेहबिरवा इक रोपना होगा" पंक्तियों का आग्रह बहुत सच्चा और अच्छा लगता है। सरल-सुन्दर रचना के लिए अभिनन्दन भावना जी !