वफा और सब्र के
महीन धागों से
बिंधती उंगलियां
रफू करती रहीं
दिनोदिन
बरस दर बरस...
दिख न जाएं किसी को
रिश्तों के खौंते।
ताने-बानों में उलझते
चढ़ते उतरते
गूंथे गए महीन धागे,
सारे एब छिपाते
बुन गए नई चादर,
जिसमें दिखने लगे
रंग प्रेम के
वो उंगलियां मगर
अब सुन्न हो गई हैं।
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