Tuesday, July 28, 2020

डर


निडर, निर्भीक
जीवन के आरंभिक वर्ष
जब कुछ पाया न था
डर का अस्तित्व नहीं था
न किसी से, न कुछ खोने का
खोजने, जानने को चल देते थे पाँव
और दौड़ता था मस्तिष्क बेलगाम।
ज्यों-ज्यों अर्जित किया जीवन
डर ने दबे पांव आहिस्ते से
बना लिया अपना स्थान...
लेकर ओट प्रेम की
कि प्रेम में पलते हैं संशय
कि प्रेम होता है जितना उदार
उतनी ही ये दुनिया संकुचित।
कि प्रेम में खोना भी पाना तो है
किंतु पाने में भी खोने का भय,
सतत पथ पर जुड़े, बने, पले
संबंध अमूल्य
डर बढ़ा, बढ़ता गया...
सफ़लता की हर डगर
सौंपती रही कोई नया डर
मन ये जानता तो है
कुछ नहीं शाश्वत विश्व में
फिर भी डरा रहता है
हाँ, सब है तो डर भी है!
निकाल नहीं पाती
उसे अजनबी की तरह
कि जुड़ा है उन सब से
जिनसे करती हूँ प्रेम।
और एक डर यह भी
कि कहीं किसी रोज़
अचानक खुल जाए आँख
पाऊँ खुद को कहीं
और आभास हो कि
जो जीवन जी रही अभी
किसी और युग का
वह स्वप्न तो नहीं।