Saturday, May 28, 2022

बहुत चाहा


बहुत चाहा फेयर रखूँ

ज़िन्दगी की नोटबुक को 

लेकिन हमेंशा रफ ही पाया...


कॉपी के उन आखिरी दो पन्नों की तरह

जिन पर होते हैं हिसाब अनगिन

हिसाब बिठाने की कोशिश में 

लेकिन, छूटा कोई हासिल

गुणा करते हुए, भाग ही पाया

बहुत चाहा...


दशमलव लगा जोड़े सिफर जब

अंतहीन सवाल कोई आया

प्रायिकता कोई खोजी कहीं तो 

शून्य उसका हासिल ही पाया

बहुत चाहा...


सजाने को जब-जब खींची लकीरें

अनचाहे निशानों से घिरती रहीं वे

घुमाया गोलाकार रेखा को जब भी

प्रश्नचिह्न जाने क्यों उभर आया

बहुत चाहा...


केंद्र से परिधि की त्रिज्या बनी तो

व्यास कोई सामने मुस्कुराया

सूत्र ढेरों रटते रहे पर

समय पर कोई काम न आया

बहुत चाहा....


सच मानो ये उलझा है बहुत

कोशिश की लाखों 

जिंदगी का गणित 

मगर समझ ही न आया

बहुत चाहा फेयर रखूँ

ज़िन्दगी की नोटबुक को 

लेकिन, हमेशा रफ ही पाया...


भावना सक्सैना