Thursday, September 19, 2019

सपने बीजते हैं

सड़क किनारे
उग आई बस्तियों में भी
होते हैं वही सुख-दुख
सपने, आस-उम्मीदें।

आसमां को काटती
ईंटों पर धरी टीन
कतर नहीं पाती
पंख सपनों के।

टीन तले पसरी भूमि
होती नहीं है परती।
उसमें गिरे स्वेद कण
बीजते पनप जाते हैं

बाँस के कोनों पर बंधे
तिरपाल की टप-टप से
नम भूमि में जन्म लेती है
असीम संभावनाएं

झिंगोले में पड़े बूढ़े पंजर
होते हैं सपनों की कब्रगाह
आँखें मगर उलीच पाती नहीं
भविष्य की सम्भावनाएं

अनकही दास्ताँ दर्द की
देती है दंश बार-बार
उफनते हैं सीने में
अधूरे ख्वाबों के खारे समंदर

मेहनतकश बाजुएँ
झोंक देती हैं जान,
हार जाती हैं अक्सर
करते बुर्जुआ बुर्जों का निर्माण।

फिर भी सपने बीजते,
पनपते रहते हैं
जीते रहने के लिए
हौसला मन को दिए रहते हैं।

Friday, September 13, 2019

हिंदी मेरी हमजोली



थपकी से सोती थी जब मैं
हिंदी में सुनती थी लोरी
बाहों के पलने में भी
बाँधी हिंदी ने ही डोरी।

साँसे माँ की, माँ के गीत
हिंदी में महसूस किए
दिल के सारे ही रिश्ते
हिंदी में मैंने हैं जिए।

पाठ पढ़ा जब भी अंग्रेजी
हिंदी ने विश्वास दिया
बनी स्नेहपूर्ण आलम्बन
मित्रों का उपहार दिया।।

मौन भी बाँचा क ख ग ने
भावों में मृदु तान भरी
तरल प्रेम उतरा नैनों में ।
हिंदी में तब बांधी डोरी ।

हिंदी मन में रही सिखाती
अंग्रेजी जब -जब बोली
पग -पग पर साथ निभाया
सदा रही मेरी हमजोली

हिंदी लेकर दूर गई
दुनिया में सम्मान दिलाया
रग-रग में भरी स्फूर्ति
हिंदी में खुद को है पाया

Thursday, August 1, 2019

आदमी की
जड़ें उग आती हैं घरों में...
उसे नहीं चाहिए
जानकारी देश दुनिया की
उसकी बादशाहत से बाहर
ताज़-ओ-तख़्त
सभी बेमानी हैं!
वह हरदम सोचता है
दीवारों पर चढ़ रही सीलन की
कभी छत से उतरती
तो कभी ज़मीन से चढ़ती।
और छत पर धरी
पानी की टंकी के नीचे
उग आए पीपल की।
उस पीपल को वह
उखाड़ फेंकना चाहता है
नहीं चाहता पीपल
जो अपनी जड़ें फैला
उस घर पर बना ले
एक मज़बूत पकड़
उस पर रखना चाहता है
वह कायम
अपना साम्राज्य
अपना आधिपत्य।
उसे ख़ौफ़ नहीं है
समय का
जो रौंद देता है सब
उसने देखे हैं
समय की गर्त में
तिरोहित भग्नावशेष
फिर भी
आदमी स्वयं को
समझता है शाश्वत
कभी पीपल सा
तो कभी बरगद सा
महसूसता है खुद को।
और जानबूझकर
भूला रहता है कि
जड़े, शाखें और पुष्प
सभी रह जाएंगे
और
सबके रहते भी वह
उखड़ जाएगा एक रोज़।
रात की केंचुली रह गई जिस्म पर
सुबह की धूप में न जली न सूखी, 
चिपचिपाती गंधाती रही दिन भर
सांझ उतरी तो फरहरा कर फिर
गहराती रात के अंधेरे से मिली
काजल की लकीरों में सिमट
सपनों को बींध कर गहरे
समा गई उम्र भर को भीतर।

30.07.2018

Monday, February 25, 2019

शब्द

अपने आप में 
होते नहीं काबिज़,
सूखे बीजों की मानिंद
बस धारे रहते हैं सत्व...
उभरते पनपते हैं अर्थों में
बन जाते हैं छाँवदार बरगद
या सुंदर कँटीले कैक्टस,
उड़ेला जाता है जब उनमें
तरल भावों का जल।
न काँटे होते हैं शब्दों में
और ना ही होते हैं पंख
ग्राह्ता हो जो मन मृदा की
पड़कर उसके आँचल में
बींधने या अंकुआने लगते हैं।
शब्द हास के
बन जाते हैं नश्तर, और
नेहभरे शब्द छनक जाते हैं
गर्म तवे पर गिरी बूंदों से
मृदा मन की हो जो विषाक्त।
कहने-सुनने के बीच पसरी
सूखी, सीली हवा का फासला
पहुँचाता है प्राणवायु
जिसमें हरहराने लगते हैं
शब्दों में बसे अर्थ ।
प्रेम की व्यंजना में
बन जाते हैं पुष्प, तो
राग-विराग में गीत के स्वर
और वेदना में विगलित हो
रहते पीड़ादायक मौन।
शब्द प्रश्न भी होते हैं
हो जाते हैं उत्तर भी
मुखर भी और मौन भी
गिरें मौन की खाई में
तो उकेरते हैं संभावनाएं।
अनंत संभावनाओं को
भर झोली में, शब्द
विचरते हैं ब्रह्मांड में
खोजते हैं अपने होने के
मायने और अर्थ।
क्योंकि शब्द
अपने आप में कुछ नहीं होते।

Wednesday, February 20, 2019

चिर अमर वे हो गए हैं

अश्रु से धुंधली है स्याही
शब्द सारे खो गए हैं
उस ज्वाल में होकर हवि
कुछ वीर जब से सो गए हैं।

है गया तन पर अमिट
गरिमा लिए सौ आसमान सी
शौर्य की गाथा बने हैं
चिर अमर वो हो गए हैं।

गांव घर सूने हुए हैं
वेदना बस झर रही है
दे गहन पीड़ा बहुत
पर भाल ऊंचे हो गए हैं।

आखिरी दीदार भी
जो कर न पाई वीर का
उस बिलखती माँ का दामन
पूछता, ताबूत खाली क्यों गए हैं।

जन्म लेकर जो अभी
आया है माँ की गोद में
पूछता है चढ़ना था जिसपर मुझे
वो उसे कांधे पे लेकर क्यों गए हैं।

Monday, February 18, 2019

लुप्तप्राय



बस कुछ ही बरसों बाद
याद की जाएगी
औरतों की वो जमात
जो सुबह से शाम
कर देती थीं
बिना कुछ करे...
जो नौकरी नहीं करती थीं
लेकिन मुँह अँधेरे
आँगन बुहारती थीं
घर को संवारती थीं।
जिनके घर में रखा मंदिर
महकने लगता था
हर सुबह ताज़े फूलों से
दीपक की लौ संग
स्फुरित होता था आशीर्वाद
और हर भोग के बाद
बँटता था प्रसाद।
बच्चों के स्कूल से लौटने पर
सेंकती थी गर्म रोटियाँ
और शाम के नाश्ते को
रखती थी तैयार
देसी घी के लड्डू-मठरियाँ।
जाड़ों की धूप में वे
सलाइयों पर बुनती थीं प्यार।
जिनके बने मीठे नमकीन
पूरन-पोली और रंगोली
सजाते थे त्योहार
जिनके आँगन और छज्जे
पुकारते थे सूर्य को
कि सुखाने होते थे
उनमें फैले पापड़-अचार
वहाँ गुड-डे और चीतोज़ के
डिब्बे-पैकेट नहीं खुलते थे
मनुहारों में दिखता था प्यार।
कतरा कतरा रिसकर
जो सींचती थी परिवार
किंतु तरसती थी हर बार
पाने को उचित व्यवहार।

इनकी पुत्रियों के मन में
असीम स्नेह के संग
घर कर गया क्षोभ,
आर्थिक स्वतंत्रता में
देखने लगीं वे मुक्ति का द्वार
समय के साथ
आगे बढ़कर संभालने लगी
अर्थ व्यवस्था की भी कमान
पुरुष के कंधे से कंधा मिला
चलने लगीं संग
कुछ साझे समझौते किए
अन्नपूर्णा से संपूर्णा बन
सुबह के अलार्म संग
शुरू हुई घनघनाहट
चलती सुबह से रात तलक
घर-बाहर संभालती
दौड़ती फिरती
हर मोर्चे पर
कहीं पूरा तो कहीं
आधा दिन कमाती
सारे बिल भरती
बैंक के काम निपटाती
बच्चों का होमवर्क कराती
टीचर से मिलने स्कूल जाती
सुपर-वुमैन बनने को बेताब
दौड़ती, तो बस दौड़ती जाती
घर परिवार की ख्वाहिशों को
स्वयं होम होती जाती
जितनी पूरी करती
उतनी ही और खड़ी पाती
हाँ! उतनी ही ख्वाहिशें और पाती।
कतरे का कतरा
भी रखा नहीं खुद को
उलाहनों से
फिर भी बच न पाती।


उलाहनों की ये दरारें
भेद गयीं मन को
हुआ फिर एक और अवतार
अगली पीढ़ी की स्त्री
पहचानने लगी
अपनी शक्ति
जल, थल नभ पर
कर दिए हस्ताक्षर
किंतु खोने लगी
परंपरागत स्त्रीयोचित व्यवहार
स्वयं को साबित करती
स्वयं से ही लड़ती
खड़ी है आज शमशीर उठाए
नकारती सब परंपराएं।
होती है आहत
अपने ही शर से
अपने जोखिम पर
लाँघती है कई सीमाएँ
क्योंकि
प्रश्नों का उसके
उत्तर नहीं है
किसी के पास
कोई कोस देता है
तो कोई करता है परिहास।

लेकिन अभी भी
इस लुप्तप्रायः जाति में
बाकी है कुछ जान
वो छोड़ नहीं पाई फितरत
नेह, ममता और संवेदना की
भीग जाती है भीतर तक
दुनिया के गम से।
वो लड़ती है,,,
अपने अधिकार के लिए
तरसती है नेहभरे
व्यवहार के लिए
वो सम्मान की अधिकारिणी
उसके सामने बौना है
तुम्हारा ओछा संसार
उथला व्यवहार।
नेह का व्यापार नहीं
माँगती है वह
निश्छल नेहभरा संसार
बस नेह भरा संसार।