रात की केंचुली रह गई जिस्म पर
सुबह की धूप में न जली न सूखी,
चिपचिपाती गंधाती रही दिन भर
सांझ उतरी तो फरहरा कर फिर
गहराती रात के अंधेरे से मिली
काजल की लकीरों में सिमट
सपनों को बींध कर गहरे
समा गई उम्र भर को भीतर।
सुबह की धूप में न जली न सूखी,
चिपचिपाती गंधाती रही दिन भर
सांझ उतरी तो फरहरा कर फिर
गहराती रात के अंधेरे से मिली
काजल की लकीरों में सिमट
सपनों को बींध कर गहरे
समा गई उम्र भर को भीतर।
30.07.2018
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