Monday, March 16, 2020

जन्म

माया के बंध खोल
वांछाओं, स्पृहाओं की
काटकर नाल
खींचते ही एक मुक्त श्वास
होता है जन्म नया...

भोर की पहली किरण से पहले
आँख खुलते ही
अदृश्य सर्वशक्तिमान को
कर निवेदित प्रणाम
आशीष पाकर खिलते ही
होता है जन्म नया...

ज़िंदगी के किसी ज़ख्म से हार
टूटने लगता है जब हौसला
और उठ खड़ी होती हूँ
फिर एक बार
उस पल में
होता है जन्म नया...

संसार में आविर्भाव का दिन
शायद एक घटना भर है
या घटना से है ज़रा ऊपर
विचारता है मन बार-बार
क्या यह बस एक घटना नहीं?
ठीक वैसे ही, जैसे
मृत्यु है, एक घटना!

इन दोनों ही घटनाओं पर
किसी का नहीं अख्तियार
किंतु बीच का बहुत सा जीवन
गुज़र जाता है
पल पल देते जन्म नया।
इन पलों को पहचानना
मुठ्ठी में भींच लेना
देखना, होगा ऐसे हर पल में
हर दिन एक जन्म नया।

Saturday, March 14, 2020

अक्सर

अक्सर कोई कह देता है उससे
तुम्हें देखा था उस रोज़... वहाँ पर
वह मुस्कुरा देती है, उसने नहीं देखा होता
कह नहीं पाती कि वह वहाँ नहीं थी
क्योंकि थी तो पर थी नहीं
कि अकसर जब
सामने होता है विस्तृत संसार
वह कुछ देख नहीं रही होती
आँखों के सामने जो घट रहा होता है
वह फिसलता जाता है
चिकनी सतह पर दो बूँद द्रव्य सा,
वो होती है किसी और ही यात्रा पर
अक्सर रह जाती है असहज सी, कि
उसे अब भी नहीं आया मुखौटे संभालना
न उदासी और खुशी की तहें बिठाना
समेट नहीं पाती एक साथ दो बैरनें
न आया सलीका सबसे हाथ मिलाने का
दिल में बैर रख खिलकर मुस्कुराने का...
रूठे हुओं को वह मना न सकी
कि उनकी पसन्द के गीत गा न सकी
जो गलत लगा उससे दामन छुड़ा लिया
सहा नहीं गया सभ्यता का दोगलापन
नहीं रम पाई महफिलों में
कि उसके पास है बस एक ही मन।



लोग डर रहे हैं
डर रहे हैं अपनो से भी
कि स्वहित सर्वोपरि है।
सड़क बाजार खाली हैं
बच रहे हैं लोग कहीं जाने से
अपना रहे हैं हर उपाय।
राष्ट्र अपने हितों के लिए
संगरोध में जा रहे हैं।
विश्व की सारी शक्तियाँ केंद्रित हैं
एक सूक्ष्म जंतु से बचाव पर...

सोच रहा है हर कोई
लगा रहा है अपने अनुमान

डरो मत दुनिया के लोगों
कि डर न तो बचाव है
और न ही कोई विकल्प
कि मृत्यु तो  तय है
उसी रोज़ से जब जन्मा तन
तुम्हें लगता है असमय
कौन कह सकता है
शायद यही समय हो...

कि धरती को झटकना है
अपना अतिरिक्त भार
प्रकृति को लेनी है करवट
फैशन की तरह
बदलना है अपना लिबास
और प्रकृति भेद नहीं करती
धन से, धर्म से या तन के रंग से
मन की स्वच्छता
आत्मा की शुद्धता का
तब भी हो सकता है कोई खेल
बाकी उसके लिए सब बराबर हैं
इसलिए ठहरो और सांस ले लो
कि जंग कोरोना से नहीं
जंग जीवन से है... आज से नहीं
ये सदियों से है
लुप्त हो जाती हैं जातियां प्रजातियां
और ठहरे रह जाते है कुछ
डरो मत...सतर्क रहो
उससे भी ज़्यादा सहज रहो
प्रकृति चुन ही लेगी
अपने हित को अपने आप

भावना सक्सैना

Friday, March 6, 2020

थक गई हैं उँगलियाँ
मोबाइल से डिलीट करते
ज़हरभरी तस्वीरें
आग, कत्ल और
वहशियत की तदबीरें।

दिन गुज़रते-गुज़रते
तस्वीरें खौफ की
बढ़ती ही जाती हैं
हर नई तस्वीर पहली से
भयावह नज़र आती है।

हैरान हूँ खोजे जा रहे हैं
लाशों पर धर्म के निशां
बेआवाज़ तनों में तो
बस दर्द की तड़प
मौत की चीख सुनी जाती है!

खौफ से फैली आँखों के
पथरा जाने से पहले
टपके होंगे सपने लहू बनकर
कि वो जानती थीं उनके बाद
बिखर जाएगा सारा घर।

छोटे-छोटे कामों को निकले
भरोसा थे किसी के कल का
भेंट चढ़ गए वहशियत की...
इंतज़ार करती आँखों का दर्द
दरिंदों को पिघला नहीं पाता है।

दर्द चेहरे पर, सूखे आँसू
खो ज़िंदगी की पूँजी
राख में बीनती कुछ
उँगलियों को देख
लहू आँखों में उतर आता है।

कौन दोषी है ?
कहीं तुम भी तो नहीं
कि कुत्सित बातें सुन
बीज अविश्वास का
मन में तो पनप जाता है!