Saturday, March 14, 2020

अक्सर

अक्सर कोई कह देता है उससे
तुम्हें देखा था उस रोज़... वहाँ पर
वह मुस्कुरा देती है, उसने नहीं देखा होता
कह नहीं पाती कि वह वहाँ नहीं थी
क्योंकि थी तो पर थी नहीं
कि अकसर जब
सामने होता है विस्तृत संसार
वह कुछ देख नहीं रही होती
आँखों के सामने जो घट रहा होता है
वह फिसलता जाता है
चिकनी सतह पर दो बूँद द्रव्य सा,
वो होती है किसी और ही यात्रा पर
अक्सर रह जाती है असहज सी, कि
उसे अब भी नहीं आया मुखौटे संभालना
न उदासी और खुशी की तहें बिठाना
समेट नहीं पाती एक साथ दो बैरनें
न आया सलीका सबसे हाथ मिलाने का
दिल में बैर रख खिलकर मुस्कुराने का...
रूठे हुओं को वह मना न सकी
कि उनकी पसन्द के गीत गा न सकी
जो गलत लगा उससे दामन छुड़ा लिया
सहा नहीं गया सभ्यता का दोगलापन
नहीं रम पाई महफिलों में
कि उसके पास है बस एक ही मन।



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