Friday, March 6, 2020

थक गई हैं उँगलियाँ
मोबाइल से डिलीट करते
ज़हरभरी तस्वीरें
आग, कत्ल और
वहशियत की तदबीरें।

दिन गुज़रते-गुज़रते
तस्वीरें खौफ की
बढ़ती ही जाती हैं
हर नई तस्वीर पहली से
भयावह नज़र आती है।

हैरान हूँ खोजे जा रहे हैं
लाशों पर धर्म के निशां
बेआवाज़ तनों में तो
बस दर्द की तड़प
मौत की चीख सुनी जाती है!

खौफ से फैली आँखों के
पथरा जाने से पहले
टपके होंगे सपने लहू बनकर
कि वो जानती थीं उनके बाद
बिखर जाएगा सारा घर।

छोटे-छोटे कामों को निकले
भरोसा थे किसी के कल का
भेंट चढ़ गए वहशियत की...
इंतज़ार करती आँखों का दर्द
दरिंदों को पिघला नहीं पाता है।

दर्द चेहरे पर, सूखे आँसू
खो ज़िंदगी की पूँजी
राख में बीनती कुछ
उँगलियों को देख
लहू आँखों में उतर आता है।

कौन दोषी है ?
कहीं तुम भी तो नहीं
कि कुत्सित बातें सुन
बीज अविश्वास का
मन में तो पनप जाता है!

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