Friday, October 12, 2018

#metoo

अरे ओ!
खौफज़दा हो क्यों
बेहद से भी ज्यादा
बहते हुए दर्द के दरिया से?
हाँ उस दरिया में सड़न है!
कि ठहरा हुआ है
वो बरसों से।
हर साँस में रमकर
रिसता रहा सदियों
नस-नस में बहा है…
भीतर-भीतर।
ना हँसोंं, ना झिड़को...
बहने दो उसे
हर रोम-कूप से…
टपकने दो बूंद-बूंद,
समेट लो अंक में
इस तरह, कि अब
दर्द को नींद आए।
तुम खौफ़ में हो, क्योंकि
तुम जोड़ रहे हो इसे
आज  के सम्मान से,
सोचो उसे जो आज तक
नज़र  मिला नहीं पाई
खुद की खुद से
झुक गई है जो लादे हुए
उस एक पल के जनाज़े को
समेटती रही है अश्कों को
जो मन के दरिया में
इससे पहले वो जुटा पाए
अपने बिखरे हुए किरचे
क्यों न खुद ही तुम
खंगालो अपने मन को
अपने घिनौने
लिजलिजेपन को
और जाकर कह दो
अपराधी हूँ उस पल का
हाथ जोड़े खड़ा हूँ

कह पाओगे क्या तुम? - मी-टू!

Thursday, August 2, 2018

तृणमात्र


तृणमात्र हैं बस इस जगती में
जिनको ले समय की धार बही
पर लड़ मरते उन बातों पर
जो चुनने का अधिकार नहीं।

कभी धर्म कभी देह पर धर
छिछली बातें करने वाले
मानवता के सहज गुणों से
रखते हैं कुछ सरोकार नहीं।

हर्शाए रहते उथली सतह पर
बातों में कुछ आधार नहीं
जाने लेकिन न समझें  कभी
प्रतिशोध से चले संसार नहीं।

वो खेल सियासी में भूले
पैशाचिकता प्रतिकार नहीं
नर पिशाचों की देश तो क्या
धरती को भी दरकार नहीं।
भावना सक्सैना

Wednesday, July 11, 2018

मन्नत के धागों में कब बंधती हैं तकदीरें
रूह की स्याही से रचती हैं ये बरसों बरस
रूह जिस रोज बदलती है चोला बदन का
मिटती है लकीरें कोई गहरा जाती हैं बस।

भावना सक्सैना

Saturday, June 23, 2018


फैली बाहें, आर्द्र स्वर, करते रहे पुकार
धरती पर फिर भी यहां, पल पल अत्याचार।

श्वासें हैं अवरुद्ध अब, चलती नहीं बयार
जाने कितने विष घुले, भीषण हाहाकार।

जल, तृण, नभ सब वारते, पोसते यह संसार
मनुज निरा एक स्वार्थी, नोचे धरणी का श्रृंगार।

वायु, दूषित, जल प्रदूषित, सिक्त कण कण वेदना से
पंक से फिर भी उपजता, स्नेह का ही सार।

सोख कर सब व्यसन, लुप्त होती चेतना  अब
बढ़ रहा पल पल धरा पर, नादानियों का भार

कुछ करें कुछ तो विचारें, तुम जरा और मैं जरा 
आओ मिल सब खोज लें, करें शुरू  उपचार।
 
 - 
भावना सक्सैना

Thursday, June 21, 2018

दरक गए संबंध कितने
आस में मनुहारों की
प्रेम को कब चाह है
बाज़ार के उपहारों की।

दो बोल से पिघला करे
हिम जो जमा सदियों रही
बह चलें एक स्पर्श में
सारी व्यथाएं अनकही।

भावना सक्सैना

Saturday, June 2, 2018

 मन की बेड़ी में जकड़े
अपने अपने द्वीपों में
युगों युगों से खड़े हुए
अनंतकाल के बंदी हम।
कोई कहानी कोई निशानी
जब तब आंखों में मोती
कारा तोड़ निकल आएं हैं
यह भी तो बस एक भरम।
कितनी राहों से गुजरा
कहाँ कहाँ भटका ये मन
बीहड़ सागर नापे सारे
छोडें नहीं जन्म के करम।
मुझको मेरा, तुझको तेरा
बांधे जन्मों जन्मों से
कोई राह है ऐसी भी
छूटें जग के भवबंधन।

Friday, June 1, 2018

कछुआ

कितना सुखी होना है
कछुआ होना
अपने घेरे में
अपने दायरे में
जड़ता ओढ़
अडिग अचल
निःस्पृह।
पाना वो तीव्र दृष्टि
जो चीर अंधेरे
पराबैंगनी किरणों में
रंग बूझ पाए
दुनियावी फितरतों के
छिपकर कवच में अपने
कह सके
मैं जब हूँ, तभी हूँ
अपने मन से
अपने लिए।

भावना सक्सैना

Tuesday, May 15, 2018

आँख भर देख लेना

आँख भर देख लेना
दिल में भी संजो लेना
सेल्फियां खींच मत रखना
अक्स दिल में बो लेना।
चित्र कागज़ के सारे ही
समय संग धुंधला जाएंगे
अंकित जो हुए मन पे
लम्हे वही बचते जाएंगे।
उगेंगी शाखें यादों की
खिलेंगे फूल स्मित के संग
कभी मुरझाएं गर जो ये
अश्रु जल से भिगो लेना
बरस फिर और जाएंगे
वो लम्हे याद लाएंगे
नयन मुस्काते जाएंगे
मन को महकाते जाएँगे।

Wednesday, May 9, 2018

चुप की क्या मजबूरी

वक्त पड़े रस्मों के आगे 
बन जाते हैं भीष्म सभी
दुःशासन बेखौफ खड़े
दुस्साहस कर पाते तभी।

अट्टहास चीरता कानों को
नज़र कुलवधू की नीची
घूंट विषैले पीकर रहना
चुप की क्या मजबूरी।

प्रतिरोध वांछित अन्याय का
युग-शताब्दी चाहे कोई रहे।
गरिमा सदा हो संबंधों में 
मर्यादा कभी ना खोई रहे ।

सत की अपनी शक्ति होती,
सत का अपना साहस है
झूठ छिपाता फिरता चेहरा
खण्डित होता दुःसाहस है।

दो पाटों में रहकर के 
न्याय नहीं हो सकता है
न्याय उलझता रिश्तों में 
कोने में पड़ा सिसकता है।

Thursday, April 26, 2018

1
एक उदासी सी बसा करती है आइनों में 
उनकी आँखों में ही अक्स खिला करता है

2
जिस सुकून और नींद की तलाश है
जब होगी न होश होगा न करार ही...
3
औरों पे जो अक्सर इल्ज़ाम लगाया करते हैं
आइनों से क्यों मुंह अपने छिपाया करते हैं?
4
भाव शब्दों से नहीं आंखों से बयाँ होते देखे
है करिश्मा के आज पत्थर भी पनपते देखे।
5
बूझ पाए जिसे कोई, वह सवाल नहीं हूँ
खुद को ही समझने में उम्र गुज़ारी है...
तिर आई है हवा में फिर से
मीठी खुशबू शहतूतों की
पिघली बर्फ, दे रही दस्तक
मन की ऋतु के परिवर्तन की।
खुशियाँ मना रहा है कोई
मौसम के करवट लेने की।
ठान लिया मन ने जब कुछ
गति तो बदलेगी जीवन की।
b.s.

हौसला नदी का

पार साल से नदी
कुछ खारी हो गयी है
थकने लगी थी बीहड़ में
पत्थरों से उलझते
सिंधु से लेकर अपना जल
अब उलटी बह रही है,
जब तक मीठी थी
हर मोड़ पे कटती रही
अब खारी हुई तो
लबालब शांत बह रही है,
हौसला चाहिए
मिठास खोने को भी
ज़रा टेढ़ा सा मुस्कुरा
घाटियों से कह रही है...
भावना सक्सैना

Thursday, March 22, 2018

Wednesday, March 21, 2018




खुशी साझा होती है, गम सबके अपने, दर्द की इंतहा है... सब अपने अपने दुख दर्द सहला रहे हैं। नया कुछ भी नहीं, सब होता रहता है। लेकिन आज यह अनूभूति हो रही है कि मेरा देश जैसे किसी ऑटोइम्मयून रोग की गिरफ्त में है जहां हर कोशिका दूसरी को मार रही है। देश के दुश्मन बाहर काम हैं भीतर ज़्यादा। बहुत कष्ट देने वाली वास्तविकता है यह...
जब भी जवान शहीद होते हैं आसपास की चीज़ों की निरर्थकता बढ़ जाती है...
 


विशाल पर्वत सा 
अजेय, दुर्गम
ढक लेता है
सूर्य की हर किरण
तुम्हारा मौन।
घने काले जंगल में
उग आती हैं
सर्पलताएँ विषैली
अजगर सा भय
सब लीलने को तैयार।
जरा मुस्कुराते ही तुम्हारे
पर्वत से फूट पड़ते हैं
झरने असंख्य
जिनमें नृत्य करती
चपल रश्मियाँ
बिखेर देती हैं
इंद्रधनुष के रंगों की
आभा अपरिमित
और इन्हें सहेजने में
कई मौसम निखर जाते हैं।

Thursday, March 15, 2018

गीली मिटटी 
अब जल्दी सूख जाती है
गूंथने में ही कुछ कमी होगी
स्निग्धता छुअन में न हो
या हवा में कम नमी होगी।
पकने से पहले पड़ें दरारें जो
पकने पर और फ़ैल जाती हैं
भीतर की रिसन और टूटन
खोखला तन मन करके जाती है।
 
दो बूँद तरलता के बढ़ा
क्यों न और इसको गूंथें ज़रा
बीन दें कचरा सभी ज़माने का
जोड़ स्नेह के अणु कण
नम हाथों से छू कर फिर फिर
ऐसे गूंथें कि सम हो भीतर बाहर
हो नरम कि सहज ही ढले
ताप समय का जब पकाए इसे
पक के चमके ये फिर सदा के लिए।

Illusion


We meet, we part
the essence of union
lingers on
on, on and on.

Faint memories of togetherness
pleasures shared
loving strife
sweet laughter.

For years we cherish them
we dream of things
that could be
were we still together.

Hoping one day to meet again
end all unfinished tales
and  explore
the untreaded miles

Finally we meet
only to discover
which change
wrought by time.

We realise
the threads have drifted
too far
to be brought together.

That all through
what we’ve been nursing,
cherishing, dreaming
is just an illusion.

 

Sunday, March 11, 2018


सांस लेते तो हैं यहां सब ही
यकीन कर मगर सब ज़िंदा नहीँ है

तन्हा नहीं रह पाते जो दो पल
ज़िंदगी मे सबसे तन्हा वही हैं।

मजमा लगा के बहलाते हैं दिल
और कहते हैं वो तन्हा नहीं हैं।

भटका जहां सुबह से शाम तलक
जान पाया नहीँ उसकी राह वही है।

बात दिल की सुनी उसने हर दफा
सोचा नहीँ कभी सही है कि नहीँ है।

करो जितनी भी गुणा भाग छिपाकर
जान लो कि साफ बड़ी उसकी बही है।

सब तो न किताबें कहती हैं

इतिहास गवाह तो होता है घटनाओं का
लेकिन सारा कब कलम लिखा करती हैं?
जो उत्कीर्ण पाषाणों में, सब तो न किताबें कहती हैं,
सत्ताएं सारी ही स्वविवेक से, पक्षपात करती हैं।

किसके लहू से रंगी शिला, किसका कैसे मोल हुआ
अव्यक्त मूक कितनी बातें, धरती में सोया करती हैं
निज स्वार्थ लिए कोई, जब देश का सौदा करता है
उठा घात अपनों की, धरती भी रोया करती है।

मीरजाफर- सा कायर जब घोड़े बदला करता है
दो सौ सालों तक धरती, बोझा ढोया करती है
ऐसा बोझा इतिहास रचे, सच्चे नायक खो जाते
मिथ्या कृतियां सूरमाओं की सत्ता नकारा करती हैं।

आज़ादी का श्रेय अहिंसा लेती जब
साहसी वीरों के बलिदान हवि होते हैं
नमन योग्य जिनके चरणों की धूलि
स्मृतियां भी उनकी खो जाया करती हैं।

कुटिल कलम इतिहास कलम करती जब
खून के आंसू पत्थर भी रोया करते हैं
लिखने वाले लिख तो देते हैं निराधार
युगों युगों पीढ़ियां, भ्रमित हुआ करती हैं।
रंजोगम हैं हज़ार सीने में
लब तो फिर भी ये मुस्कुराते हैं।

ख्वाब आते तो हैं नज़र में मगर
भीग आंसू से फिसल जाते हैं ।

पाँव उनका पड़ा था दिल पे मगर
सोच कर पत्ता निकल जाते हैं।

ख्वाहिशें होती हैं नाज़ुक सी बड़ी
अपनी ही खुद न जान पाते हैं।

वो जो कल हाथ छोड़ते ही न थे
आज पहचान भी न पाते हैं।

नूर अच्छाई का चमकता है जब
आईने आप ही टूट जाते हैं।

सिर्फ मेरा, है तो क्या?

इस जहां से उस जहां तक 
सिर्फ मेरा, है तो क्या?
हवा, पानी, सूर्य, बादल
सब बराबर से बंटे है।
भाई-बन्धु, रिश्ते-नाते
अपनेपन के गीत गाते,
नेह के सौदे जो सारे
कट के खाँचों में अटे हैं।
ईश पर अधिकार सबका
वेदों की ऋचाएं सबकी
सबकी सरगम,गीत सबके
धरा पर सब सम डटे हैं।
बारिशों का जल धरा का
पुष्प का मकरंद सब लें
सब पे छाए ऋतु बसंत
सबमें सातों रंग रमे हैं।
अपनी बस अनूभूतियाँ 
अपनी बस एक आस्था 
अपने मेरे शब्द जिनसे
मौन के दानव छंटे हैं।
अपनी भक्ति अपनी शक्ति
परम से अनुराग अपना
अपना है वो नाम हरि का
बोल जो निस-दिन रटे हैं।