Saturday, June 23, 2018


फैली बाहें, आर्द्र स्वर, करते रहे पुकार
धरती पर फिर भी यहां, पल पल अत्याचार।

श्वासें हैं अवरुद्ध अब, चलती नहीं बयार
जाने कितने विष घुले, भीषण हाहाकार।

जल, तृण, नभ सब वारते, पोसते यह संसार
मनुज निरा एक स्वार्थी, नोचे धरणी का श्रृंगार।

वायु, दूषित, जल प्रदूषित, सिक्त कण कण वेदना से
पंक से फिर भी उपजता, स्नेह का ही सार।

सोख कर सब व्यसन, लुप्त होती चेतना  अब
बढ़ रहा पल पल धरा पर, नादानियों का भार

कुछ करें कुछ तो विचारें, तुम जरा और मैं जरा 
आओ मिल सब खोज लें, करें शुरू  उपचार।
 
 - 
भावना सक्सैना

No comments: