Wednesday, May 9, 2018

चुप की क्या मजबूरी

वक्त पड़े रस्मों के आगे 
बन जाते हैं भीष्म सभी
दुःशासन बेखौफ खड़े
दुस्साहस कर पाते तभी।

अट्टहास चीरता कानों को
नज़र कुलवधू की नीची
घूंट विषैले पीकर रहना
चुप की क्या मजबूरी।

प्रतिरोध वांछित अन्याय का
युग-शताब्दी चाहे कोई रहे।
गरिमा सदा हो संबंधों में 
मर्यादा कभी ना खोई रहे ।

सत की अपनी शक्ति होती,
सत का अपना साहस है
झूठ छिपाता फिरता चेहरा
खण्डित होता दुःसाहस है।

दो पाटों में रहकर के 
न्याय नहीं हो सकता है
न्याय उलझता रिश्तों में 
कोने में पड़ा सिसकता है।

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