नदी जब सूख जाती है...
सरक जाती हैं
बस्तियां उसके किनारों से
नदी जब सूख जाती है...
क्या देखा है कभी ठहर कर
सूखी नदी के अवशेष में
देखना गौर से
उसके तल में बची
अंतहीन रेत को
मिली होती है उसमें भस्म
ज़िंदा अरमानों की
जो दबाए चलती है
वह अपने भीतर।
रिसते दर्द की लकीरें
अंकित रह जाती हैं
उन घुमावदार रास्तों पर
जिनसे गुज़रते हुए
वह आगे बढ़ तो जाती है
किन्तु ढोती है उनके कण
अपने वक्षस्थल पर सदा के लिए।
किनारे छोड़
सरक तो जाती हैं बस्तियां
पर सोचा है क्या कभी
क्यों सूख जाती है नदी?
खेत, ज़मीन, जीवन और
संस्कृतियों को पोसती
अचानक रिक्त हो जाती है तल तक।
बदलते मौसम सोख लेते हैं
उसके भीतर की नमी और
भर देते हैं आँचल में आग
सह नहीं पातीं
सिंधु और तीस्ता भी
जब तड़पती हैं मछलियां और
सूखते हैं शैवाल
बचा नहीं पाते उसके आँसू
मूक क्रंदन सुना नहीं जाता
छा जाता है वीतराग।
नदियों पर होते हैं समझौते
वह कुछ कर नहीं पाती
बंट जाती है मौन
नदी कुछ कह नहीं पाती
उसने सीखा ही नहीं बोलना
वह जानती है सिर्फ बहना
बहते रहना...
लेकिन,
नदियां यूँ ही नहीं बहा करतीं
पर्वत की कठोरता को सहती
पिघलाती हैं उसका अंतर्मन
समेटती बटोरती हैं
जाने कितनी जड़ों के रस,
मीलों मील लिए चलती है
दाय स्रोत का
बाँटती हुई निश्छल
वह देती है सागर को सदा
संचित मिठास की बूंदें।
नदी सूख जाती है
कि शायद
सागर ने बस सीखा है लेना
नदी सूख जाती है कि
सह नहीं पाती
प्रजातियों का धीरे धीरे
लुप्त हो जाना
सागर लौटा नहीं पाता
नदी की नमी
खोए साथियों का बिछड़ना
सह नहीं पाती नदी।
फिर भी सत्य यही
नदी सूख कर भी मरती नहीं
रहती है ज़िंदा
कहीं किसी के भीतर
हर मौसम, हर घड़ी।
भावना सक्सैना