सृजन
Monday, August 31, 2009
सपने
मंजे बरतनों के धुलने पर
कुछ बहते हैं,
कुछ बह जाते हैं,
कपड़े धुलने पर,
फिर भी अटके रहते हैं....
कोनों में
सपने, कल्पनाएं और उनके पर।
बुहार-बुहार परे करती हूँ
छिटकते रहते हैं
कागज के टुकड़ों से फिर भी,
सपने चिपके ही रहते हैं,
संग-संग जीवन भर
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