Friday, March 12, 2010
मन
जंगल विचारों का
है - ये मन।
अस्त व्यस्त,
ऊबड़-खाबड़।
अनायास उभर आते हैं...
एक पर एक चढ़े जाते हैं
सात्विक... कलुषित
विस्मित !!!
कुछ उपजे, कुछ पढ़े हुए,
कुछ देखादेखी जड़े हुए।
आंख बंद करनी चाहो
एक नए रूप में खड़े हुए।
Thursday, March 11, 2010
रिश्ते (क्षणिकाएँ)
(1)
कईं शहर हैं ढके बर्फ से
ठंड से सिकुड़ गए हैं तन,
फिर भी बेहतर उन गलियों से
जहाँ जमे पड़े हैं मन।
(2)
क्यूँ रिश्ते सभी
उम्र के छोटे होते हैं?
चार दिन मुस्कुराहटों में
बाद... जिंदगी भर ढोते हैं।
(3)
कितनी कितनी बार सिले हैं
उँगली बिंधीं, सुईं है मौन
ताने-बाने सरक गए हैं,
पैबंदों को संभाले कौन?
रिश्तों की गाँठे हैं भारी
धागे कच्चे,
प्रयास भी पौन
फिर भी जुड़े-जुड़े कहीं हैं
रक्त के बंधन
काटे कौन ?
Tuesday, March 9, 2010
इरादा
बुझाकर बत्तियाँ शहर की सारे
आसमाँ नज़र में भरने का इरादा है
मैंने जब माँग लिया तुझ को तुझसे
जिंदगी साथ निभाने का वादा है
आसमाँ नज़र में भरने का इरादा है
मैंने जब माँग लिया तुझ को तुझसे
जिंदगी साथ निभाने का वादा है
Monday, March 8, 2010
मैं -सत्य
क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में,बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में,बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
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