Friday, March 12, 2010

मन


जंगल विचारों का
है - ये मन।
अस्त व्यस्त,
ऊबड़-खाबड़।

अनायास उभर आते हैं...
एक पर एक चढ़े जाते हैं

सात्विक... कलुषित
विस्मित !!!
कुछ उपजे, कुछ पढ़े हुए,
कुछ देखादेखी जड़े हुए।

आंख बंद करनी चाहो
एक नए रूप में खड़े हुए।

3 comments:

हरकीरत ' हीर' said...

भावना जी अच्छा लिखतीं हैं आप ....खासकर क्षणिकायें बेहद पसंद आयीं ......!!

Yogesh Verma Swapn said...

wah sunder abhivyakti, vicharon ka jangal ye man, sach hai.

अवनीश एस तिवारी said...

सुन्दर | लेकिन और बढाइये |

अवनीश तिवारी