Friday, April 30, 2010

एक रिश्ता


हाथ से फोड़े
अमरूद के स्वाद-सा
जुबाँ पर
संदूक के कोने में
छिपी चवन्नी-सा भी है,
डिबिया में बंद
जुगनू-सा चमकता
जेब में कंचे-सा
खनकता भी है।
पहली फुहार पे उठी
सौंधी महक-सा
तृप्त बालक की आँख-सा
दमकता भी है
सघन नीम-सा
ठंडाता जेठ में
माघ में बरोसे-सा
गरमाता भी है
बंद मुट्ठी-सा
करीब है दिल के
छुटपन की शरारत-सा
मगर, खटकता भी है
कहें क्या
क्या नाम दें
क्या पुकारें इसको
ये जो रिश्ता
उग आया
हरी दूब-सा है।

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