आने वाले वर्ष,
तुम्हारे स्वागत में
कुछ करना होगा।
छोड़ चीथड़े द्वेषभाव के,
नव परिधानों में
सजना होगा
कुछ बंधन काटने होंगे,
स्वछंद, नील गगन में,
इक पंछी सम उड़ना होगा
आशाहीन दिशाभ्रमित जो,
हाथ पकड़ कर, राह दिखा कर
उनको गले लगाना होगा।
जग त्रास से बेबस जो,
सोये हुए स्वप्न हृदय में
उनको पुनः जगाना होगा
उँगलियाँ बहुत दिखा चुके,
क्या लेना कौन करे है क्या,
बस अपना आप परखना होगा।
घृणा बैर सब काट, फेंक कर
आशा की उर्वर भूमि में
स्नेह बिरवा इक रोपना होगा।
Monday, December 12, 2011
Saturday, November 26, 2011
समाधान की तलाश में -
उलझ रहे है सिरे
कईं रोज़ से...
निकलना होगा
उन्हे सुलझाने को
निकलना होगा आज
एक लंबी यात्रा पर
इस कमरे से बाहर,
ए सी के कृत्रिम
सुखद अहसास से परे।
फाइलों से भरी अलमारियों
और उत्तर की प्रतीक्षा में
मुंह खोले पड़े पत्रों से परे
उन मुद्दों से परे
जिनके समाधान तो हैं
पर उसकी अधिकारीयत बौनी है
और समाधान सच्चे।
और सच्चे समाधानों
से कुछ भला हो भी तो
पहले पन्ने पर
तस्वीरें तो नहीं छपतीं
उसके लिए जरूरी है मेहनत,
एक अलग तरह की
बहुतों की आदत में
कुछ की सीमा से परे।
और फिर
वह पुरुष भी तो नहीं
जो कंधे पर हाथ धर
दो पैग में घोल कर पी जाए
या सिगरेट के धुएँ में उड़ा दे
ग्लानि, ठेस और पीड़ा
जो उपजती है
आदर्शों के सूखे पत्तों सा
कुचल जाने से,
निर्मम लांघते चले जाने से
दूसरों के सपने और अपनी हदें।
बाहर.........
क्योंकि अंतर की सिलवटें
चुभने लगी हैं,
क्योंकि नासूर बनने से पहले,
अबूझे, अनुत्तरित प्रश्नों
को हवा में तिरना है,
शायद, कभी-कहीं-कोई समाधान हो पाये!
बाहर.... क्योंकि
विपक्ष तो करता नहीं है
अंतर की सैर।
Friday, November 4, 2011
शहर पुराने
कुछ शहर पुराने, यादों में
अकसर आ जाया करते हैं;
गहराते हैं साये जब,
बन सूरज छाया करते हैं।
जीवन के बीहड़ में जो कभी,
काँटों की चुभन बढ़ जाती है;
वो नर्म रुई के फ़ाहों से,
मन को सहलाया करते हैं।
सीधा चलते चलते भी तो
दोराहे पर आ जाते हैं;
वो हाथ पकड़ कर हमदम से
बस राह दिखाया करते हैं।
जो शहर पुराने यादों में
अकसर आ जाया करते हैं।
Tuesday, February 15, 2011
ये हवा
राज तेरे मेरे लिए...
कराहती है तभी,
किलकती है कभी
सीली सीली सी
कभी तेज, कभी मद्धम
ये हवा
हर दौर से गुजरती है।
याद के पीत पत्रों को
पलटती,
कईं खुशबू उड़ाती,
अहसासों को कुतरती
कभी
कोई नब्ज़ छेड़ जाती है
ये हवा पर दर्द समझ पाती है।
चलती रही है
सदियो यूँ ही
चुपचाप!
गुदगुदाती, गुनगुनाती,
कभी शोर मचाती हुई
बदलती इस उस को
कभी यूँ ही मेरे संग बदल जाती है।
कराहती है तभी,
किलकती है कभी
सीली सीली सी
कभी तेज, कभी मद्धम
ये हवा
हर दौर से गुजरती है।
याद के पीत पत्रों को
पलटती,
कईं खुशबू उड़ाती,
अहसासों को कुतरती
कभी
कोई नब्ज़ छेड़ जाती है
ये हवा पर दर्द समझ पाती है।
चलती रही है
सदियो यूँ ही
चुपचाप!
गुदगुदाती, गुनगुनाती,
कभी शोर मचाती हुई
बदलती इस उस को
कभी यूँ ही मेरे संग बदल जाती है।
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