Sunday, October 7, 2012


आंसुओं में पिरोये
टुकड़े रात के
झरोखे से चाँद 
ताकता रहा 
अपलक
नींद रूठी हुई 
कहीं जा छिपी 

नेह की  बारिश बहुत थी
माँ तेरा आंचल नहीं था.

दूर थी माँ जब पुकारा
मुझको तेरा बल नहीं था
मचलती ठुनकती रूठती हंसती
दुलार भरी बाहों में पलती 
दीखती थी सारी सखियाँ 
माँ मुझे संबल नहीं था.

कर दिया तुमने अलग जब 
ममता की यूँ न कुछ कमी थी 
अश्रुओं की थी नमी
स्नेह की पाती कईं थीं 
माँ मेरी यूँ तो कईं थी 
एक तेरा आँचल नहीं था

मजबूर कितनी तुम थी उस दिन
कितने तेरे अश्रु गिरे थे
छोड़ आई थी मुड़े बिन 
मैं समझ पाती हूँ अब 
तिनके सी तब सागर में थी
कश्ती जिसे साहिल नहीं था.

फ़र्ज़ क़र्ज़ अब चुक गए सब 
चुक गया बचपन बेचारा
चुक गए सूखे से कुछ क्षण
आयेंगे न अब दोबारा
सालता है अब तलक 
वो पल जो मेरा कल नहीं था. 

कुछ रुके रुके पल



हर पल चलते
समय चक्र में
थम जाते हैं,
हो जाते हैं
अंकित - कुछ पल

उर अंतर में,
बस जाते हैं;
रम जाते हैं,
कर जाते हैं;
भाव विह्वल।

धुल जातीं,
स्मृतियाँ यौवन की;
अमिट रहें पर,
पी संग देखे;
पहले बादल।

हर अवसर पर,
भरा अंक में;
पर अमूल्य,
प्रथम शिशु का;
स्पर्श सुकोमल

कुछ सीले सीले भारी भी
कुछ काँटों की सी
चुभन वाले
रुक जाते हैं
कुछ अनचाहे शुष्क तरल।
इक रोज़ तपाया था 
नर्म नेह आंच में
घट दरक गया है  
झुलस ताप में. 

न शिकवा न शिकायत प
प्रश्न हैं कईं 
क्यूँ दीखते हैं भरे 
वृक्ष खोखले कईं? 
कह कर करें भी क्या? 
क्या सुनेंगे वो ? 
घिर गए हैं जो 
अपने रुआब में?