Wednesday, March 25, 2015
Monday, March 9, 2015
वक्त - क्षणिकाएं
मौन प्रश्न
पाएं न उत्तर
वीरान निगाहों में
कितना बेबस
कितना कातर
इंसा वक्त की बाहों में।
x-x-x
पाएं न उत्तर
वीरान निगाहों में
कितना बेबस
कितना कातर
इंसा वक्त की बाहों में।
x-x-x
टुकड़ा टुकड़ा
कतरा कतरा
जीवन बीना
भरी टोकरी
खूब सहेजा
रह जाएगा बिखरा सब ही
वक्त की राहों में.....
कतरा कतरा
जीवन बीना
भरी टोकरी
खूब सहेजा
रह जाएगा बिखरा सब ही
वक्त की राहों में.....
x-x-x
लम्हे जो छप गए दिल पर
उम्र बीते वो बीतते ही नहीं,
ज़ख्मों से रिसता है दर्द
कुछ गम हैं जो रीतते ही नहीं,
वक्त ही नश्तर वक्त ही मरहम
वक्त से हम कभी जीतते ही नहीं।
उम्र बीते वो बीतते ही नहीं,
ज़ख्मों से रिसता है दर्द
कुछ गम हैं जो रीतते ही नहीं,
वक्त ही नश्तर वक्त ही मरहम
वक्त से हम कभी जीतते ही नहीं।
Saturday, March 7, 2015
न हारी है, न हारेगी
सूजे पपोटों पर
ठंडे पानी के छींटें
दो लकीरें काजल,
अधरों को छू
हल्के से रंग से;
दफ्न कर गुबार दिल के
उलझी सी स्मित में,
है फिर तैयार
नज़र नभ पर
वो अष्टभुजा
चीर हर जंगल
निकल आएगी
अपने संसार को
तराशेगी फिर
कितने हों दलदल
बाहर आएगी
न हारी है, न हारेगी।
ठंडे पानी के छींटें
दो लकीरें काजल,
अधरों को छू
हल्के से रंग से;
दफ्न कर गुबार दिल के
उलझी सी स्मित में,
है फिर तैयार
नज़र नभ पर
वो अष्टभुजा
चीर हर जंगल
निकल आएगी
अपने संसार को
तराशेगी फिर
कितने हों दलदल
बाहर आएगी
न हारी है, न हारेगी।
कहते हैं वो
जागी है स्त्री
हुई है सजग!
अरे बंधुओं
ये संज्ञान हो
वो सोई नहीं
एक रात भी;
उदार धीरज
की प्रतिमा रही
सहती रही सदियों
सितम पर सितम
बिखर कर भी
शक्ति सहेजे रही
भीतर ही भीतर
खुद से लड़ी
हुई अब अति
न सह पाएगी
दुनिया को अब दिखलाएगी
जीतेगी वो
फिर मुस्काएगी।
जागी है स्त्री
हुई है सजग!
अरे बंधुओं
ये संज्ञान हो
वो सोई नहीं
एक रात भी;
उदार धीरज
की प्रतिमा रही
सहती रही सदियों
सितम पर सितम
बिखर कर भी
शक्ति सहेजे रही
भीतर ही भीतर
खुद से लड़ी
हुई अब अति
न सह पाएगी
दुनिया को अब दिखलाएगी
जीतेगी वो
फिर मुस्काएगी।
मैं हर एक हूँ
मैं हर एक हूँ
मुझमें सब हैं
बहता दरिया हूँ
आग भी मेरा सबब।
मुझमें सब हैं
बहता दरिया हूँ
आग भी मेरा सबब।
जीती हूँ दर्द
ओढ़ती बिछाती हूँ
छान तलछट को
मोती पाती हूँ
मैं औरत हूँ
नई सदी की
मुझे पहचानो न अब।
ओढ़ती बिछाती हूँ
छान तलछट को
मोती पाती हूँ
मैं औरत हूँ
नई सदी की
मुझे पहचानो न अब।
देह मात्र नहीं
भीतर बाहर
परे स्पर्श से
अविनाशी अमर
एक आत्मा
पुंज शक्ति का
देखो जागी मैं अब।
भीतर बाहर
परे स्पर्श से
अविनाशी अमर
एक आत्मा
पुंज शक्ति का
देखो जागी मैं अब।
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