Saturday, March 7, 2015

न हारी है, न हारेगी


सूजे पपोटों पर
ठंडे पानी के छींटें
दो लकीरें काजल,
अधरों को छू
हल्के से रंग से;
दफ्न कर गुबार दिल के
उलझी सी स्मित में,
है फिर तैयार
नज़र नभ पर
वो अष्टभुजा
चीर हर जंगल
निकल आएगी
अपने संसार को
तराशेगी फिर
कितने हों दलदल
बाहर आएगी
न हारी है, न हारेगी।
कहते हैं वो
जागी है स्त्री
हुई है सजग!
अरे बंधुओं
ये संज्ञान हो
वो सोई नहीं
एक रात भी;
उदार धीरज
की प्रतिमा रही
सहती रही सदियों
सितम पर सितम
बिखर कर भी
शक्ति सहेजे रही
भीतर ही भीतर
खुद से लड़ी
हुई अब अति
न सह पाएगी
दुनिया को अब दिखलाएगी
जीतेगी वो
फिर मुस्काएगी।

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