Friday, October 2, 2015

बस्ती आज क्यूँ उदास
सोचता रहा शज़र।
बादलों को ओढ़ कर
सो गयी चुपचाप
यूँ तो थी देर से
अनमनी दोपहर।
सुन्न मीलों मील फैली
उदास राह गाँव की
ताकती रस्ता उसका
लील जिसे गया शहर।
ताल पर पसरा कुहासा
सूर्य ने भेजी किरण
तरु-पत्रों से छन बिखरी
कण कण पुनः किया उज्जर।
अंगड़ाई ले उठी ख़ुशी
अरसे से जो सिमटी पड़ी
आज फिर से वक़्त पर
भारी हुआ धैर्य का स्वर।

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