फीजी की गिरमिट संघर्षगाथा के वाहक – पं. तोताराम सनाढ्य यदि किसी मनुष्य में थोड़ा भी ह़दय हो तो संसार में सबसे अधिक कष्टदायक और विषादोत्पादक दृष्य फीजी की कुली लेन को देखना है। फीजी के पादरी श्री जे.डब्ल्यू बर्टन के इन शब्दों को महात्मा गाँधी और भारत के अधिकारियों व जन सामान्य तक पहुँचाकर फीजी में गिरमिट प्रथा की समाप्ति का सूत्रपात करने का श्रेय है पं. तोताराम सनाढ्य को। यह उस समय की बात है जब संचार का माध्यम फोन अथवा इंटरनेट नहीं अपितु व्यक्ति तथा पत्र हुआ करते थे। संदेशों का आदान-प्रदान न सहज था, न सुलभ था। इन शब्दों के साथ आपने फीजी में गिरमिट काट रहे भारतवंशियों के कष्टों, उन पर हो रहे अत्याचारों की गाथा को भारत तक पहुँचाया और एक आंदोलन खड़ा कर दिया। आपकी पुस्तक 'फीजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष' गिरमिट काल का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है। फीजी द्वीप में गिरमिटिया प्रथा का अंत 1 जनवरी 1920 को हुआ। इसमें अन्य लोगों के साथ-साथ पं. तोताराम सनाढ्य तथा उनकी इस पुस्तक की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
वर्ष 1972 में छपे इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में प्रकाशक की ओऱ से दी गई टिप्पणी में पुस्तक के प्रथम संस्करण की अपार सफलता का उल्लेख करते हुए लिखा गया है – “बड़े-बड़े विद्वानों की सम्मति में कुली प्रथा के विरुद्ध आंदोलन में इस पुस्तक ने बड़ी सहायता दी है। मिस्टर एंड्रूज ने लिखा था, "मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि शर्तबंदी की गुलामी उठा देने में इस पुस्तक से बड़ी भारी सहायता मिलेगी।" भारत के कई प्रसिद्ध नेताओं ने इस क्षुद्र पुस्तक को पढ़ लिया है और संतोष प्रकट किया है। फीजीद्वीप में इस पुस्तक का अच्छा प्रभाव पड़ा है। इन बातों पर विचार करते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि इस क्षुद्र पुस्तक को पूरी-पूरी सफलता प्राप्त हुई है”।
इस पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, गुजराती व बांग्ला भाषाओं में हुआ। यद्यपि सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगाया, किंतु इसकी प्रतियाँ गुपचुप छापी जाती रहीं और वितरित की जाती रहीं। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी किसान नामक पुस्तक उसी के आधार पर लिखी तथा कवियित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पूज्य पति श्री लक्ष्मण सिंह चौहान ने कुली-प्रथा नाटक उसी से प्रेरित हो कर प्रताप में छपाया, जिसे सरकार ने जब्त कर लिया। लोकमान्य तिलक के केसरी में उस पर दो बार अग्रलेख निकले थे और क्रांतिकारियों को वह पुस्तक पढ़ने को दी जाती थी। मैनपुरी के षड्यंत्र केस के अभियुक्तों के पास वह पायी गयी थी। श्रद्धेय जयप्रकाश उन दिनों विद्यार्थी थे और उनके जीवन-चरित्र में श्री बेनीपुरीजी ने लिखा था कि 'फीजीद्वीप में 21 वर्ष' ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था।
अवधेय है कि 19वीं सदी के अंत व 20वीं सदी के आरंभ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के आचंलिक क्षेत्रों से रोजी-रोटी की तलाश में अनुबंधित श्रमिक के तौर पर सात समुंदर पार फीजी गए भारतीय मूल के लोगों ने आरंभ में अत्यधिक कष्ट झेले किंतु उन्होंने फीजी को सजाया, संवारा और संपन्न किया आज इन गिरमिटियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी फीजी देश में सुप्रतिष्ठित है, सुशिक्षित है और संपन्न है। विदेशी भूमि पर बहुजातीय देश में विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के बीच भारतीय मूल के इन लोगों ने अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित रखा है। किंतु यहाँ पहुँचने वाले भारतीय श्रमिकों की प्रथम पीढ़ी का जीवन अत्यंत त्रासदीपूर्ण था। इस त्रासदीपूर्ण जीवन से मुक्ति दिलाने में पं तोताराम की पुस्तक अवलंब बनी। इस पुस्तक के माध्यम से शर्तबंदी प्रथा में फीजी गए मजदूरों के नारकीय जीवन की गूँज भारतीय नेताओं तक पहुँची और इसका विरोध आरंभ हुआ। भारतीय सरकार तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा समिति और आयोग गठित हुए और इस गंभीर समस्या पर विचार हुआ। अंततः 1916 में संविधान बनाकर इस प्रथा को समाप्त किया गया और 1 जनवरी 1920 से ये सारी शर्तों और बंधन समाप्त हुए
पं. तोताराम सनाढ्य का जन्म 1876 में हिरनगी (फीरोजाबाद) में हुआ था। पिता की असामयिक मृत्यु के कारण उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। वे 1893 में नौकरी की खोज में प्रयाग पहुँचे जहाँ से उन्हें नौकरी का लालच देकर गिरमिटिया मजदूर के रूप में जमना नामक जहाज पर फीजी ले जाया गया। अपनी पुस्तक के आरंभ में आपने डिपो से फीजी तक पहुँचने का सविस्तार वर्णन किया और वहाँ पहुँचने के बाद वहाँ स्थित भारतीय मजदूरों की मार्मिक दशा का वर्णन किया। आप वहाँ की स्थिति से बहुत विचलित रहे।
'फीजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष' पुस्तक लिखने का प्रयोजन भारतवंशियों की वेदना से हिंदुस्तान की जनता को अवगत कराना था। पुस्तक के आरंभ में ही उन्होंने प्रश्न उठाया है कि हे मेरे सुशिक्षित देशबंधुओं! क्या आपने इन भाइयों के विषय में कभी विचार किया है? क्या आपके हृदय में इन दुखित भाइयों के लिए कुछ कष्ट हुआ है? क्या कभी सजला सफला मातृभूमि के उन पुत्रों के विषय में आपने सुना है जो डिपोवालों की दुष्टता से दूसरे देशों में भेजे जाते हैं? क्या इन लोगों के आर्तनाद को सुन कर आप के कान पर जूँ भी नही रेंगेगी?2
इस पुस्तक में उन्होंने बैरिस्टरों द्वारा हिंदुस्तानियों के शोषण का विस्तृत वर्णन किया, साथ ही भारत लौटे हुए गिरमिटियों की स्थिति का भी उल्लेख किया और भारत में उनके भाई बंधुओं द्वारा किए गए अत्याचारों का विवरण दिया।
पं. तोताराम जाति से ब्राह्मण थे, आव्रजन कार्यालय के दस्तावेज़ों में उनका पारिवारिक नाम ठाकुर दर्ज था। महात्मा गाँधी जी के शब्दों में “वे कट्टर हिंदू थे। पर उनका हृदय हिंदू, मुसलमान और अन्य धर्मियों के प्रति समान रहा, उनमें अस्पृश्यता की बू तक न थी और न किसी तरह का व्यसन ही था”। वे कट्टर देशभक्त और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। भारतीय ग्रंथों में उनकी आस्था थी। जब वह नवसारी पहुँचे, तो उन्हें एक ऐसे स्थान पर रखा गया जहाँ सिर्फ चूहे और कुत्ते ही थे। बाद में 1922 में लिखी पुस्तक भूतलेन की कथा में उन्होंने इस स्थान के कष्टों का उल्लेख किया और बताया कि किस प्रकार बहुत कम खाद्य सामग्री देकर उनसे बहुत अधिक काम कराया जाता था। उन्होंने लिखा है कि किस प्रकार दुखी होकर आत्महत्या के विचार आने पर वह महाभारत और गीता पढ़ते थे, जिनसे उन्हें शक्ति मिलती थी।
फीजी की धार्मिक स्थिति सुधारने के लिए भी आपने काफी काम किया। यह आपके ही प्रयत्न का फल था कि सन 1902 ई० में फीजी के नाबुआ जिले में रामलीला प्रारंभ हुई। लगातार आपने सात-आठ वर्ष तक आपने रामलीला का वहाँ प्रबंध किया था। यह रामलीला दो उद्देश्यों से करायी जाती थी। एक तो यह कि प्रवासी भारतवासियों के हृदय में अपने धर्म तथा अपने उत्सवों पर श्रद्धा बनी रहे तथा शर्तबंदी भाई- बहनों के दुखों को जानने का अवसर मिले।
कंत्राक की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने अपनी सूझबूझ व हौसले से एक प्रभावशाली मुकाम प्राप्त किया। वहीं पर जमीन खरीद ली और सरदार (ओवरसीयर) बन गए। गन्ने की खेती करते हुए आपने समय के साथ स्वयं को स्थापित किया व समृद्धि प्राप्त की। वहीं पर बसे एक हिंदुस्तानी श्रमिक के अपनी पुत्री से विवाह के प्रस्ताव पर आपने सोचा ‘मेरी तरुण अवस्था है और मैं ऐसे देश में रहता हूं, जो काजल की कोठरी है, और मैं स्वच्छंद हूं, कहीं कुमार्ग पर पड़ गया तो कलुषित हो जाऊंगा, जो जीते जी एक हृदय को जलाया करेगा। इसलिए उत्तम हो कि खोटे कामों से बचने के लिए विवाह करके गृह-जीवन में प्रवेश करूं’ और विवाह कर लिया।
आपने फीजी के आसपास के द्वीपों की यात्रा की और वहाँ कष्ट काट रहे श्रमिकों का हाल जाना, जो कमोबेश सभी जगह एक समान था। धोखे, दीनता और दारिद्रय का कथाएं एक सी ही थी। स्पष्टतया गिरमिट व दासता में कोई विशेष अंतर न था। हर ओर अमानवीयता व्याप्त थी औऱ उसके चंगुल में फंसे बेचारे हिंदुस्तानी लोगों के लिए कोई मुक्ति का मार्ग न था। पंडित जी इस स्थिति से बहुत द्रवित हुए और उनके कल्याण के लिए काम करने लगे। फीजी द्वीप में 21 वर्ष पढ़कर पता लगता है कि उन्होंने वहाँ फंसे अन्य हिंदुस्तानी भाई-बहनों के उत्थान का भरपूर प्रयास किया।गाँधीजी को वहाँ के कष्टों का संक्षिप्त विवरण देते हुए पत्र लिखा और गांधीजी से प्रार्थना की, कि वे किसी बैरिस्टर को फीजी भेजने का प्रबंध करें।
इस पत्र के अंशों का अनुवाद गाँधीजी ने समाचार-पत्रों में भी छपवा दिया। इंडियन ओपिनियन में छपे इस पत्र को मॉरिशस में श्री मणिलाल मगनलाल डॉक्टर ने पढ़ा और वह तुरंत फीजी पहुँचे। आपने फीजी के गवर्नर को पत्र लिखकर, उपनिवेशक व उपदेशक को फीजी बुलाने का आग्रह किया। इस प्रकार पं. तोताराम जी ने पहले तो फीजी में ही रहकर प्रवासी हिंदुस्तानियों के लिए राहत व उत्थान संबंधी कार्य किए और भारत लौटकर, गिरमिट प्रथा के खिलाफ व्यापक प्रचार किया।
तोताराम जी के कार्यों से फीजी के हिंदुस्तानी इतने उपकृत थे कि उनके भारत लौटने पर वह बहुत दुखी हुए। इन प्रवासियों ने उन्हें एक अभिनंदन पत्र भेंट किया जिसके कुछ वाक्य उद्धृत करना समीचीन होगा –
"आपने 21 वर्ष रहकर हम सब फीजी प्रवासी भारतवासियों के साथ जो भलायी की है, उसके लिए हम सब आप के आजन्म ऋणी रहेंगे। आपने सनातन धर्म की पताका को फीजी में फहरा कर हम सबको धर्म में प्रवृत्त किया। ईश्वर आपको इस उपकार का बदला देगा। महात्मा गांधी और डाक्टर मणिलालजी से पत्र-व्यवहार करके डाक्टर मणिलालजी को बुलाने के लिया पैसा इकट्ठा करने के निमित्त आप अपनी गाँठ का पैसा खर्च कर पहाड़ व जंगलों में कोठियों में घूमे और अपनी स्त्री और बच्चों की परवाह न करके 2600 रुपये इकट्ठे किए और मणिलालजी को बुलाया। यह कहना अनुचित न होगा कि डाक्टरजी आज आप ही के कठिन परिश्रम से आये हैं। 'भारत सरकार ने जो कमीशन हम लोगों के दुःख की जाँच करने के लिए भेजा था, उसके जाँच करने की सूचना फीजी के एजेंट जनरल ने यहाँ के गोरे जमींदारों को दे दी थी, हम लोगों को स्वप्न में भी कमीशन के आने की खबर न थी! आपने ऐसे समय बुद्धिमत्ता दिखा, कुली एजेंट से उपरोक्त कमीशन की जाँच का नोटिस ला कर अंग्रेजी से हिंदी में तजुर्मा कराके तमाम कोठियों में पहुँचाया......... और भी कुंती का दुःख देख उस पर गुजरे जुल्म आपने ही भारत के समाचार पत्रों में उद्धृत कराके भारत के नेता तथा सरकार तक पहुँचाये। आपने ही यह बात एजेंट जनरल तक पहुंचायी कि हिंदू मुसलमानों के धार्मिक विवाहों को सरकार स्वीकार करे...।
प्रसिद्ध मिशनरी मिस्टर जे० डब्ल्यू० बर्टन ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'फीजी ऑफ टुडे' में पं. तोताराम को एक सुशिक्षित ब्राहमण, शुद्ध मस्तिष्क वाला और शंतिपूर्वक शास्त्रार्थ करने वाला बताया है। वह आपको फीजी के हिंदुओं का मुखिया समझते थे। वास्तव में पंडित जी न सिर्फ सहृदय थे वह बुद्धिमान व चतुर थे इस बात का साक्ष्य है कि फीजी से लौटते समय आप वहाँ की स्थिति के साक्ष्य स्वरूप बहुत से दस्तावेज एकत्र कर लाए, आपने लिखा – “अपने साथ इस संदूक में बहुत-से कागज-पत्र ऐसे थे जिनमें की फीजी-प्रवासी भारतवासियों के दुखों और कष्टों का वर्णन था और कितने मजिस्ट्रेटों के फैसलों (Judgement) की प्रतिलिपि भी थी। श्रीमान गाँधीजी, श्रीयुत मणिलालजी इत्यादि से जो पत्र व्यवहार हुआ था, उसकी नकलें थीं। यद्यपि इन वस्तुओं में कोई वस्तु हानिकारक नही थी, पर मुझे ख्याल था कि फीजी के गोरे मेरा पीछा जहाज में भी नहीं छोड़ेंगे। आख़िरकार तलाशी हुई”। (PP 134किंतु अपनी सूझबूझ के कारण तोताराम जी अपने महत्वपूर्ण कागजों को सुरक्षित रखने में सफल हुए।
फीजी से भारत आने के पश्चात तोताराम जी ने कुली-प्रथा के विरुद्ध बहुत आंदोलन किया। कलकत्ता, लाहौर, अंबाला, मथुरा आदि अनेक स्थानों में आपने कुली-प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दिए। मद्रास कांग्रेस में आप फीजी के प्रतिनिधि हो कर सम्मिलित हुए और कांग्रेस के प्लेटफार्म से आधे घंटे तक राष्ट्रभाषा हिंदी में कुली-प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दिया। सुप्रसिद्ध पत्र 'भारत मित्र' ने लिखा था, "कुलियों के कष्टों के बारे में हमारे पाठक बहुत कुछ नहीं जानते हैं, परंतु कांग्रेसवाले इस विषय में कुछ भी नहीं जानते। यदि फीजी प्रवासी भाई तोतारामजी को अपना प्रतिनिधि बना कर न भेजते तो इसकी भी आशा न थी।" फीजी में 21 वर्ष पुस्तक की टिप्पणी में यह भी दर्ज है कि पं. तोताराम ने हरिद्वार के कुंभ पर अपने निज के व्यय से बारह दिन तक कुली-प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया था और पचास हजार विज्ञापन आरकाटियों के विरुद्ध बँटवाए थे। कितने ही गाँवों में घूम-घूमकर आपने टापुओं के दुःख सुनाए हैं। इस विषय में आप बिना किसी दूसरे की सहायता के सात सौ रूपए अपने गाँठ से खर्च कर चुके हैं। फीजी में भी कुली-प्रथा के विरुद्ध आपने बहुत काम किया…
फीजी में 21 वर्ष पुस्तक की समाप्ति भी आपने एक आह्वाहन से की – आपने लिखा – “प्रिय देशबंधुओ! आओ हम सब मिल कर कुली-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन करें। यदि हम लोगों ने तन-मन-धन से प्रयत्न किया तो परमेश्वर हमारी सहायता अवश्य करेगा क्योंकि दैवं पुरुषकारेण साध्य सिद्धि निबंधनं”।
1922 में तोताराम ने साबरमती आश्रम में रहना आरंभ किया और 1948 में निधन तक वहीं रहे। उनके देहांत पर श्रद्धांजलि में महात्मा गाँधी जी ने लिखा – “वयोवृद्ध तोतारामजी किसी से भी सेवा लिए बगैर गए। ये साबरमती आश्रम के भूषण थे। विद्वान तो नहीं पर ज्ञानी थे। भजनों के भंडार थे, फिर भी गायनाचार न थे। अपने एकतारे और भजनों से आश्रमवासियों को मुग्ध कर देते थे। जैसे वे, वैसे ही उनकी पत्नी भी थीं। पर तोतारामजी पहले ही चल बसे!
जहाँ आदमियों का जमाव रहता है, वहाँ तरह- तरह के झगड़े चलते ही रहते हैं। मुझे एक भी मौका याद नहीं, जिसमें इस दंपत्ति ने भाग लिया हो या ये किसी तरह के झगड़े की जड़ बने हों। तोतारामजी को धरती प्यारी थी। खेती उनका प्राण थी। आश्रम में वे बरसों पहले आये और कभी उसे नहीं छोड़ा। छोटे-बड़े स्त्री- पुरुष उनके मार्गदर्शन के भूखे रहते। उनसे अचूक आश्वासन पाया करते”।
उल्लेखनीय है कि पुस्तक फीजी में 21 वर्ष को लिपिबद्ध करने में पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का महत्वपूर्ण योगदान था। पं. तोताराम और चतुर्वेदी जी की मुलाकात 15 जून, 1914 को फिरोजाबाद के हिंदी पुस्तकालय भारती भवन में हुई और भवन के मैनेजर लाला चिरंजीलाल ने उनका परिचय कराया। यही भेट इस महत्वपूर्ण पुस्तक के सामने आने का कारण बनी। इतिहास इन दोनों महानुभावों का सदैव ऋणी रहेगा।
संदर्भ -
फीजी में मेरे 21 वर्ष, चतुर्थ संस्करण, भारती भवन, फीरोजाबाद
भूतलेन की कथा, सं. बृज विलाश लाल, आशुतोष कुमार, योगेंद्र यादव, प्र.: राजकमल प्रकाशन
मृणालिनी सिन्हा - तोताराम
https://www.youtube.com/watch?v=fMDS6iM8owE (24.02.2021 को रात्रि 9.00 बजे देखा गया)
फीजी का सृजनात्मक हिंदी साहित्य, डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
फीजी में हिंदी - स्वरूप और विकास, डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा, पीतांबरा प्रकाशन