1
कितना भी चाहें
रोक कहाँ पाते हैं
लम्हा-लम्हा साथ
छूटते जाते हैं।
लम्हे महीन
रेत की मानिंद
हाथों से फिसल जाते हैं
कितना भी कस कर पकड़ें
हाथ छूट ही जाते हैं।
2
सुरसा के मुख सी प्रतीक्षा
ना खत्म होती है न पूरी
भटकना नियति है मानव की
भटकते हुए एक रोज़
मोहब्बत जी उठती हैं
सवार मजबूरियों की पीठ पर
प्रेम जितना निःस्वार्थ है
उतना ही स्वार्थी भी।
३
कुछ लोग यूँ ही
दिल से उतर जाते हैं
होते होते ही सिर्फ़
नहीं होता ऐसा
देखना गौर से
वक्त के दामन में
कोई नश्तर गड़ा होगा।
४
नेह
बूँद है स्वाति की
सीप में गिरती है
निखर जाती है
निकलती है जब लेकिन
सीप के टुकड़े कर जाती है।
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