Tuesday, April 15, 2025

क्षणिकाएँ

 1

कितना भी चाहें 

रोक कहाँ पाते हैं

लम्हा-लम्हा साथ 

छूटते जाते हैं। 

लम्हे महीन 

रेत की मानिंद 

हाथों से फिसल जाते हैं 

कितना भी कस कर पकड़ें

हाथ छूट ही जाते हैं। 


2


सुरसा के मुख सी प्रतीक्षा

ना खत्म होती है न पूरी

भटकना नियति है मानव की

भटकते हुए एक रोज़

मोहब्बत जी उठती हैं 

सवार मजबूरियों की पीठ पर

प्रेम जितना निःस्वार्थ है

उतना ही स्वार्थी भी। 


कुछ लोग यूँ ही 

दिल से उतर जाते हैं 

होते होते ही सिर्फ़ 

नहीं होता ऐसा 

देखना गौर से 

वक्त के दामन में 

कोई नश्तर गड़ा होगा। 


नेह

बूँद है स्वाति की 

सीप में गिरती है 

निखर जाती है 

निकलती है जब लेकिन 

सीप के टुकड़े कर जाती है। 

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