Tuesday, April 15, 2025

भंगुर जीवन

 कोई चला गया

मैं उसे नहीं जानती थी।
उसके जाने ने मगर
एक और कील ठोक दी
जीवन की भंगुरता पर।
कल तक
वह खड़ा बतिया रहा था
ख़्वाब सजा रहा था
मुस्कुरा रहा था
गरिया रहा था
और आज समय यूँ गरिया गया
कि निःशब्द आसपास सब!
बूझे-अबूझे रास्तों पर
जाने-अजाने, चाहे-अनचाहे
किसी के भी चले जाने पर
थोड़ा और सहम जाता है मन…
चलता रहता है मगर जीवन!

आधी सच्ची आधी झूठी

आधी सच्ची आधी झूठी है ये दुनिया

है है यह भी सच कि 

तुम्हारा सच कुछ और है 

मेरा कुछ और

सच यह भी  कि

आँखों देखा व कानों सुना भी 

होता है कभी गलत भी। 

अमावस को दिखता नहीं 

चाँद मगर होता है। 

जमी झील की सतह पर 

दिखता नहीं पानी 

बर्फ के नीचे फिर भी 

समय बीतने के इंतज़ार में रहता है। 

ऊपर ही ऊपर होता है शांत 

कई बार समंदर

भीतर उसके मगर

गरजता तूफ़ान होता है 

और 

भीतर के तूफ़ानों को शांत करना 

सच है 

कई बार बस में नहीं होता है। 


मन के तूफ़ान मगर 

मन के ही क़ाबिज़ हैं

किसी और का इन पर 

अख़्तियार कहाँ होता है। 


फिर भी जब एक सा कुछ 

लगातार दोहरा जाये

अनकहे भाव 

भाव भंगिमाओं में उतर आएँ

तो लाजमी है रहना सतर्क

कि पहला दायित्व 

अपनी ओर ही हुआ करता है 

बंधु तुम भी रहना सतर्क 

कि कलई उतरते उतरते 

उतर ही जाती है

और उतरी हुई कलईं

मूल से बहुत कुरूप नज़र आती है। 

क्षणिकाएँ

 1

कितना भी चाहें 

रोक कहाँ पाते हैं

लम्हा-लम्हा साथ 

छूटते जाते हैं। 

लम्हे महीन 

रेत की मानिंद 

हाथों से फिसल जाते हैं 

कितना भी कस कर पकड़ें

हाथ छूट ही जाते हैं। 


2


सुरसा के मुख सी प्रतीक्षा

ना खत्म होती है न पूरी

भटकना नियति है मानव की

भटकते हुए एक रोज़

मोहब्बत जी उठती हैं 

सवार मजबूरियों की पीठ पर

प्रेम जितना निःस्वार्थ है

उतना ही स्वार्थी भी। 


कुछ लोग यूँ ही 

दिल से उतर जाते हैं 

होते होते ही सिर्फ़ 

नहीं होता ऐसा 

देखना गौर से 

वक्त के दामन में 

कोई नश्तर गड़ा होगा। 


नेह

बूँद है स्वाति की 

सीप में गिरती है 

निखर जाती है 

निकलती है जब लेकिन 

सीप के टुकड़े कर जाती है। 

Wednesday, December 25, 2024

 चढ़ते चढ़ते ठिठक जाती हूँ सीढ़ियों पर

बीच- बिलकुल बीच

जहां से नज़र आते हैं  

दोनों ही, तल और शीर्ष। 


बीच में कहीं 

एक सुकून का कोना है 

बीच में होना जुनून का न होना है 

बीच में होना जीवन का बचे रहना है 

वो जो नहीं रहता अपना 

शिरोबिंदु पर। 


सोचती हूँ 

इतना भी ज़रूरी नहीं 

शिखर पर पहुँचना

त्यागना पड़ता है बहुत कुछ 

उस बिंदु के लिए 


कि स्थायित्व ऊँचाई में नहीं 

समभाव में ही तो है 

न ऊपर,  न नीचे 

सुकून की मंज़िल में 

कहीं बीच में। 

Sunday, July 16, 2023

तमन्नाओं के जंगल

तमन्नाओं के जंगल 
सुर्ख होते जा रहे हैं
कत्ल हर रोज़ होती 
एक नई ख्वाहिश यहाँ पर
लहू रिसता जिगर से बूंद बनकर
मगर दरिया बहे ही जा रहे हैं।


ये मायावी शहर, 
कितनी है बारिश
हो मौसम कोई, 
यहां हर रोज़ बरसे
बचाया है बहुत छींटों से फिर भी 
ये दामन बस भिगोए जा रहे हैं।


बहुत चाहा कि तुमसे दूर हो लें
मगर बस में नहीं उद्दाम लहरें
जमाए पांव थे 
कस कर बहुत ही
किनारे फिर भी देखो 
छूटते ही जा रहे हैं।


कभी इनसे, क़भी उनसे
नींव शिकवों की गहरी है
रहा मन में गिला हरदम
मगर एक बात ये भी तो 
सोचकर कोई कुछ करता कहाँ है
हादसे बस हुए ही जा रहे हैं।


तमन्नाओं के जंगल 
सुर्ख होते जा रहे हैं...

Thursday, March 16, 2023

 शहर की व्यस्त 

सड़क के किनारे लगे 

उदास से लाल डिब्बे को देख 

मन हुआ एक चिट्ठी लिखी जाए।

कि तकनीक के इस दौर में

अरसा हुआ किसी से खतो खतावत हुए

भावनाओं में डूबे अल्फ़ाज़ों की नमी उतरी नहीं है बरसों से आंख में

ठहरा नहीं है मौसम शब्दों में कहीं


फिर ख़्याल... कि 

किसको लिखें भाव इस मन के

कौन ठहर कर गहेगा शब्दों को

आत्मसात करेगा उनमें छिपा वेग

उनमें छिपे ठहराव

तो सोचा...

खुद से खुद का ही है नाता अटूट

खुद से कहनी भी हैं अरसे से बातें कईं

एक लड़की गुम हो गयी है भीतर कहीं

वो अक्सर

हाँ अक्सर जो दिखती है

वो तो है ही नहीं...

तो लिखना है डूब कर

एक रोज़ खत खुद को ही

ये जानते हुए भी 

कि मन के हिस्से

लिखना आसान नहीं।

तुम भी किसी रोज़

ठहर कर किसी मोड़ पर

लिखना खुद को बातें मन की अनकही।


Monday, March 13, 2023

 घाम, पानी, शीत, आंधी 

वह सभी कुछ सह चुका है

वक्त का दरिया लबालब

उसके ऊपर बह चुका है।


पौ फ़टे से दिन ढले तक

अनगिनत जो देखे दृश्य

ज़र्रा ज़र्रा रक्त में मिल

धमनियों को गह चुका है।


थाम न पाती शिराएँ

जम गया जो स्नायुओं में

बरसों बरस जमता रहा

जाने क्या-क्या तह चुका है।


सफर के इस मोड़ पर

रीतती जाती हैं आँखें

कल्पना में था महल जो

वो कभी का ढह चुका है।


पर नहीं सब कुछ थमा है

देख कोंपल फिर हरी हैं

बस ज़रा सा नेह जल दे

प्राण इसमें नहीं चुका है।


लगे जब सब कुछ चुका सा

बहुत तब भी रहता है...

बात बस एक दृष्टि की है

मन मेरा यह कह चुका है।