निशा द्वंद्व से आदृत हो
तुमको पुकारा करते हैं
वंचित कर दो ना दामन से
इस संशय से डरते हैं।
हो निकट कभी तो मूक रहें
पृथक हुए अश्रु झरते हैं।
य़ह द्वेषी समय न पृथक कर दे
इस संशय से डरते हैं।
कच्ची माटी की गागर में
प्रेम नीर भरते हैं ,
छूटे ना गागर हाथों से
इस संशय से डरते हैं।
विरह भाव समय असमय
यूँही विह्वल करते हैं
यह द्वेषी समय न पृथक कर दे
इस संशय से डरते हैं।
2 comments:
मानवीय प्रेम की सीमाओ को बड़े सुंदर ढंग से व्यक्त करती कविता ! आपकी भाषा बहुत प्यारी है ! शब्दों में मिठास है !
कच्ची माटी की गागर में
प्रेम नीर भरते हैं ,
छूटे ना गागर हाथों से
इस संशय से डरते हैं।
sunder abhivyakti, badhai.
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