बरसते हो जब,
तुम खोजते सौंधी महक
मैं नए चिने पलस्तर सी
नमी खोजती सख्त हो जाने को।
सदियों के पुरुष से
तुम खोजते समर्पण,
मैं नत,
बस तेज़ हवा बह जाने तक।
Thursday, August 26, 2010
Wednesday, July 21, 2010
छलना
चला था घर से जब
आँख में आस थी, उम्मीद थी
उमंग थी,
बेहतर बन जाने की।
दिए थे सपने
जिसने,
दिखता था उस जैसा
मधुर कंठ था मीठे बोल
और आश्वासन था
उसका भारतीय मूल-
“देखो मैं हूँ पी आई ओ*
संग मेरे तुम हो लो,
उभरो दलदल से,
जीवन अपना बदलो।
इतनी मेहनत पर
डॉलर बहुत पाओगे
य़हाँ रहोगे, जीवन भर
बस यूँ ही रह जाओगे।
दूर देश है एक
वहाँ तुम जैसे ही बसते हैं
आवश्यकता हीरे की तुमसे
वहाँ भारतवासी पुजते हैं।
कर मुझ पर विश्वास
देख मैं तुझ जैसा ही तो हूँ
मेरे दादा इसी देश के
फिर तो भाई तेरा हूँ।
पासपोर्ट, वीज़ा, परमिट,
सब कागज मैं कर दूँगा
चल तू मेरे साथ,
तेरी मैं जेबें ही भर दूँगा”
और पड़ोसी भी था कहता-
मत घबरा,
खुला एक दफ्तर है रहता
मदद करेगा वह भी
देशवासी हैं अपने ही वे
संग होंगे
कठिनाई
जो हुई कभी।
और यही कुछ आश्वासन ले
चला, पाँव पसारा...
माँ की आँख भरी जलधारा
पिता की कोर भी नम थीं
दूर कष्ट पर उनके होंगे
यही आस क्या कम थी।
कौतुक रस्ते भर भी देखे
देख-देख भरमाया।
मध्य रात्रि उतरा विमान
तब
गहन अंधेरा पाया।
क्या था वह संकेत कहीं
उस आसन्न तिमिर का
जीवन पथ की राहों में
पड़ने वाले कहर का ।
होना था जो शुरु
सिलसिला
चिर अनंत श्रम का...
अंतडियां जब शोर मचाती
सूखी रोटी पाता
हाड़ तोड़ मेहनत भी करता
डालर एक न पाता,
सब कुछ जमा है खाते में,
पी आई ओ कहता जाता।
इतना जाहिल भी तो न था
सोच-सोच रह जाता
अगूंठा, हस्ताक्षर कहीं ना,
खुला गया कहां यह खाता।
कार्यपत्र की मांग करी जब
पासपोर्ट भी गंवाया
मजदूरी की मांग करी तो
जा थाने पहुंचाया
उससे ही कुछ और वहां थे
फिर भी तो विरुद्ध
एक आस छोटी सी ही तो थी
जीवन बना क्यूँ युद्ध।
गिरते पड़ते ढूंढ ढांढ कर
दफ्तर तो जा पाया
पर दमड़ी तो पास नहीं
फिर हमदम कोई न पाया
जो मालिक
संभ्रांत नागरिक,
उसे सही ही पाया
जो भूखा...
मत लालच कर
उसको यह समझाया
सकुचा सहमा,
मिला मुझे जब
अश्रुसिक्त चेहरा था बस वह
लिए कईं सवाल-
घर जाकर कह दूँ कैसे मैं
बैरंग लौट चला आया हूँ
कैसे जानूँ किस गलती की
आज सज़ा पाया हूँ?
उस छले हुए की
दशा देख
यह सोच सोच रह जाती
छले गए जो सदी से पहले**
उन सा ही है
या बदतर है
उनके दुश्मन दूर देश के
अब अपने घर के हैं।
स्वार्थ सिद्धि को ले आते हैं
बहलाकर फुसलाकर
अपने सपने पूरे करने
चिराग और का जलाकर।
(*पी आई ओ - person of Indian origin
** वे गिरमिटिया मजदूर जिन्हें विश्व के विभिन्न देशों में भेजा गया)
आँख में आस थी, उम्मीद थी
उमंग थी,
बेहतर बन जाने की।
दिए थे सपने
जिसने,
दिखता था उस जैसा
मधुर कंठ था मीठे बोल
और आश्वासन था
उसका भारतीय मूल-
“देखो मैं हूँ पी आई ओ*
संग मेरे तुम हो लो,
उभरो दलदल से,
जीवन अपना बदलो।
इतनी मेहनत पर
डॉलर बहुत पाओगे
य़हाँ रहोगे, जीवन भर
बस यूँ ही रह जाओगे।
दूर देश है एक
वहाँ तुम जैसे ही बसते हैं
आवश्यकता हीरे की तुमसे
वहाँ भारतवासी पुजते हैं।
कर मुझ पर विश्वास
देख मैं तुझ जैसा ही तो हूँ
मेरे दादा इसी देश के
फिर तो भाई तेरा हूँ।
पासपोर्ट, वीज़ा, परमिट,
सब कागज मैं कर दूँगा
चल तू मेरे साथ,
तेरी मैं जेबें ही भर दूँगा”
और पड़ोसी भी था कहता-
मत घबरा,
खुला एक दफ्तर है रहता
मदद करेगा वह भी
देशवासी हैं अपने ही वे
संग होंगे
कठिनाई
जो हुई कभी।
और यही कुछ आश्वासन ले
चला, पाँव पसारा...
माँ की आँख भरी जलधारा
पिता की कोर भी नम थीं
दूर कष्ट पर उनके होंगे
यही आस क्या कम थी।
कौतुक रस्ते भर भी देखे
देख-देख भरमाया।
मध्य रात्रि उतरा विमान
तब
गहन अंधेरा पाया।
क्या था वह संकेत कहीं
उस आसन्न तिमिर का
जीवन पथ की राहों में
पड़ने वाले कहर का ।
होना था जो शुरु
सिलसिला
चिर अनंत श्रम का...
अंतडियां जब शोर मचाती
सूखी रोटी पाता
हाड़ तोड़ मेहनत भी करता
डालर एक न पाता,
सब कुछ जमा है खाते में,
पी आई ओ कहता जाता।
इतना जाहिल भी तो न था
सोच-सोच रह जाता
अगूंठा, हस्ताक्षर कहीं ना,
खुला गया कहां यह खाता।
कार्यपत्र की मांग करी जब
पासपोर्ट भी गंवाया
मजदूरी की मांग करी तो
जा थाने पहुंचाया
उससे ही कुछ और वहां थे
फिर भी तो विरुद्ध
एक आस छोटी सी ही तो थी
जीवन बना क्यूँ युद्ध।
गिरते पड़ते ढूंढ ढांढ कर
दफ्तर तो जा पाया
पर दमड़ी तो पास नहीं
फिर हमदम कोई न पाया
जो मालिक
संभ्रांत नागरिक,
उसे सही ही पाया
जो भूखा...
मत लालच कर
उसको यह समझाया
सकुचा सहमा,
मिला मुझे जब
अश्रुसिक्त चेहरा था बस वह
लिए कईं सवाल-
घर जाकर कह दूँ कैसे मैं
बैरंग लौट चला आया हूँ
कैसे जानूँ किस गलती की
आज सज़ा पाया हूँ?
उस छले हुए की
दशा देख
यह सोच सोच रह जाती
छले गए जो सदी से पहले**
उन सा ही है
या बदतर है
उनके दुश्मन दूर देश के
अब अपने घर के हैं।
स्वार्थ सिद्धि को ले आते हैं
बहलाकर फुसलाकर
अपने सपने पूरे करने
चिराग और का जलाकर।
(*पी आई ओ - person of Indian origin
** वे गिरमिटिया मजदूर जिन्हें विश्व के विभिन्न देशों में भेजा गया)
Sunday, July 18, 2010
Tuesday, May 25, 2010
Friday, April 30, 2010
एक रिश्ता
हाथ से फोड़े
अमरूद के स्वाद-सा
जुबाँ पर
संदूक के कोने में
छिपी चवन्नी-सा भी है,
डिबिया में बंद
जुगनू-सा चमकता
जेब में कंचे-सा
खनकता भी है।
पहली फुहार पे उठी
सौंधी महक-सा
तृप्त बालक की आँख-सा
दमकता भी है
सघन नीम-सा
ठंडाता जेठ में
माघ में बरोसे-सा
गरमाता भी है
बंद मुट्ठी-सा
करीब है दिल के
छुटपन की शरारत-सा
मगर, खटकता भी है
कहें क्या
क्या नाम दें
क्या पुकारें इसको
ये जो रिश्ता
उग आया
हरी दूब-सा है।
Friday, March 12, 2010
मन
Thursday, March 11, 2010
रिश्ते (क्षणिकाएँ)
(1)
कईं शहर हैं ढके बर्फ से
ठंड से सिकुड़ गए हैं तन,
फिर भी बेहतर उन गलियों से
जहाँ जमे पड़े हैं मन।
(2)
क्यूँ रिश्ते सभी
उम्र के छोटे होते हैं?
चार दिन मुस्कुराहटों में
बाद... जिंदगी भर ढोते हैं।
(3)
कितनी कितनी बार सिले हैं
उँगली बिंधीं, सुईं है मौन
ताने-बाने सरक गए हैं,
पैबंदों को संभाले कौन?
रिश्तों की गाँठे हैं भारी
धागे कच्चे,
प्रयास भी पौन
फिर भी जुड़े-जुड़े कहीं हैं
रक्त के बंधन
काटे कौन ?
Tuesday, March 9, 2010
इरादा
बुझाकर बत्तियाँ शहर की सारे
आसमाँ नज़र में भरने का इरादा है
मैंने जब माँग लिया तुझ को तुझसे
जिंदगी साथ निभाने का वादा है
आसमाँ नज़र में भरने का इरादा है
मैंने जब माँग लिया तुझ को तुझसे
जिंदगी साथ निभाने का वादा है
Monday, March 8, 2010
मैं -सत्य
क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में,बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं.............
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान.........
हर कपट निरखता।
आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।
गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया.....
रहूँ कहाँ......
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को.....
एक और रपट बनाने को....
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।
चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान.......
कि कहीं कोई बिठाकर.....
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में,बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही..........
काट लूँगा मैं
एक और सदी।
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