Saturday, June 23, 2018


फैली बाहें, आर्द्र स्वर, करते रहे पुकार
धरती पर फिर भी यहां, पल पल अत्याचार।

श्वासें हैं अवरुद्ध अब, चलती नहीं बयार
जाने कितने विष घुले, भीषण हाहाकार।

जल, तृण, नभ सब वारते, पोसते यह संसार
मनुज निरा एक स्वार्थी, नोचे धरणी का श्रृंगार।

वायु, दूषित, जल प्रदूषित, सिक्त कण कण वेदना से
पंक से फिर भी उपजता, स्नेह का ही सार।

सोख कर सब व्यसन, लुप्त होती चेतना  अब
बढ़ रहा पल पल धरा पर, नादानियों का भार

कुछ करें कुछ तो विचारें, तुम जरा और मैं जरा 
आओ मिल सब खोज लें, करें शुरू  उपचार।
 
 - 
भावना सक्सैना

Thursday, June 21, 2018

दरक गए संबंध कितने
आस में मनुहारों की
प्रेम को कब चाह है
बाज़ार के उपहारों की।

दो बोल से पिघला करे
हिम जो जमा सदियों रही
बह चलें एक स्पर्श में
सारी व्यथाएं अनकही।

भावना सक्सैना

Saturday, June 2, 2018

 मन की बेड़ी में जकड़े
अपने अपने द्वीपों में
युगों युगों से खड़े हुए
अनंतकाल के बंदी हम।
कोई कहानी कोई निशानी
जब तब आंखों में मोती
कारा तोड़ निकल आएं हैं
यह भी तो बस एक भरम।
कितनी राहों से गुजरा
कहाँ कहाँ भटका ये मन
बीहड़ सागर नापे सारे
छोडें नहीं जन्म के करम।
मुझको मेरा, तुझको तेरा
बांधे जन्मों जन्मों से
कोई राह है ऐसी भी
छूटें जग के भवबंधन।

Friday, June 1, 2018

कछुआ

कितना सुखी होना है
कछुआ होना
अपने घेरे में
अपने दायरे में
जड़ता ओढ़
अडिग अचल
निःस्पृह।
पाना वो तीव्र दृष्टि
जो चीर अंधेरे
पराबैंगनी किरणों में
रंग बूझ पाए
दुनियावी फितरतों के
छिपकर कवच में अपने
कह सके
मैं जब हूँ, तभी हूँ
अपने मन से
अपने लिए।

भावना सक्सैना