समय के चक्रव्यूह में
घुटनों तक दल दल में फंसी
सोच रही हूं
क्या स्वयं से जूझने से बड़ा
होता है कोई युद्ध!
आकांक्षाओं, अपेक्षाओं से इतर
कोई नहीं है शत्रु
अपनी वर्जनाएं हैं अपने ही आदर्श
हठधर्मिता का कवच ओढ़ लेती हूँ कभी
और कभी सब हथियार डाल
नतमस्तक हो जाती हूँ समर्पित...
की अपनों से जीते हुए युद्ध
जीत कर भी हार जाते हैं हम
कभी अपने से कभी अपनों से।
उलझते लड़ते, दूर चली आयी हूँ
मिटने लगे हैं निशान कदमों के भी
भरे नहीं हैं लेकिन घाव
पिछले युद्ध के।
कृष्ण हो तो सही तुम मेरे आसपास
किंतु मेरी दृष्टि मलिन नहीं देख पाती
तुम्हारा विराट रूप
प्रभु फिर भी थामे रहना हाथ
कि इस दलदल में सिवा तुम्हारे
कोई नहीं है साथ।
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