बहुत बातें थी करने को
मगर मैं कह नहीं पाई
रही मन में, जो मन की थी
कभी मैं बह नहीं पाई।
बरस बीते, उमर बीती
बीता बचपन, तरुणाई
लगी हूँ भूलने अब तो
कि कब-कब याद तुम आई।
मगर ये तो कहो ना अब
कभी पहुंची थी तुम तक क्या?
दबी सिसकी जो छूटी थी
चीरती बांध सारे ही...
वो धब्बा तकिये पर सुरमई
कभी क्या देख पायीं थी?
बहा था काजल आँसू संग
कि तब से रीती हैं अँखियाँ...
हज़ारों ख्वाब सीने के
धूप संग मुरझाये थे जो
हरे रह सकते थे छाँव
आँचल की गर होती।
मैं अकसर सोचती हूँ माँ...
मैं क्या होती तुम्हारे संग जो होती
क्या बेहतर नींद ही होती जो
आँचल-छांव मैं सोती।
सभी कुछ है भरा-पूरा
मगर कुछ तो खलिश सी है
तुम्हारी आँख में भी तो
आज भी कुछ नमी सी है।
ये कैसी ज़िद तुम्हारी है
बर्फ अब तक जमी क्यों है?
ये कैसी बर्फ है माँ
पिघल अब तक जो न पाई।
बहुत बातें थी करने को
मगर मैं कह नहीं पाई
रही मन में जो मन की थी
कभी मैं बह नहीं पाई।
भावना सक्सैना
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