Monday, November 9, 2015

पुरानी चीज़ें

मोह नहीं है
फिर भी छूटती नहीं
पुरानी चीज़ें।
चांदी की एक बाली
जो अम्मा ने बनवाई थी
कर्णछेदन पर
हल्दी तेल उसके
धुल गए कब से
लेकिन सिमटी है
उसमें एक तरल मुस्कान
पहला साहस
दर्द में न रोने का।
दराज़ के कागजों में छिपा
सागर तट का धुंधला सा चित्र
जिसमें माता पिता
के संग मुस्कुराते चेहरे
अतीत को ज़िंदा रखे हैं;
ज़रूरी है वह
दिल के सागर में
छिपी यादों की तरह।
पाठशाला का चित्र
जिसमें जड़े चेहरे
बदल गए बरसों पहले
पर उसमेँ मैं खुद को
अभी भी पहचान लेती हूँ
और उसे देख नए हो जाते हैं
कितने ही संकल्प
जो अभी पूरे नहीं हुए।
वो किस्से कहानियाँ
जो कहीं लिखे नहीं
पर मोती से टंके हैं
दिल के दामन पर।
एक नामालूम सा बूंदा
जो अनमोल है
कि उसे ले आया था
आठ साल का एक बालक
पिकनिक के लिए दिए
मामूली से खर्चे से
अपनी माँ के लिए
कहता है कहानी
एक बालक के बड़े होने की।
बालिश्त भर का एक स्वेटर
जिसमें माँ की उँगलियों ने
बुने थे स्नेह के तार
अभी तक उसकी
नरमी में महकता है प्यार;
कुछ खिलौने
जिनसे कोई खेलता नहीं
लेकिन बीता कल
मुस्कुराता है उनमें।
एक ख़त पुराना
नए रिश्तों की
जिसने नींव धरी
जिसके विश्वास में
महकता है आज
और धो देता है
यदा कदा उपजी काई
जिस पर फिसल के
टूट जाते हैं रिश्ते।
इन सब में
और ऐसी कईं और
कोनों में सहेजी हुई
निशानियों में है मौजूद
मेरा ज़रा ज़रा सा वजूद
इनसे जुदा जो होने नहीँ देता
इनके होने से मेरा होना है।
लेकर साथ तो
कुछ भी है जाना नहीं
ज़िंदा रहने को
पर ये जरूरी हैँ
सांसों की तरह।
तकलीफ बहुत देते हैं
जब दर्द नए होते हैं
धीमे धीमे बस उर अंतर
मन के हो लेते हैं।
साँसों के संग आते जाते
हर पल संग बहते हैं
इनके ही एहसासों में
खुद को ज़िंदा कहते हैं।

Friday, October 2, 2015

यादों के द्वारे
पलड़े नहीं हैं,
चली आती हैं
बेसबब सर उठाए।
कभी नर्म रेशम सी
सहलाएं मन को,
कभी दर्द का
घन दरिया बहायें।
कभी बीच बाज़ार
उड़ती सी खुशबू,
बहा ले जाए
किसी ही जहाँ में।
जगाएं कभी नींद से
बनके सपना,
उठा ले जाएँ
अनोखे जहाँ में।
एहसास मधुर
बीती ज़िन्दगी का,
बना दें सुखद
हर दिन, जो अब आए।
भावना सक्सैना
बस्ती आज क्यूँ उदास
सोचता रहा शज़र।
बादलों को ओढ़ कर
सो गयी चुपचाप
यूँ तो थी देर से
अनमनी दोपहर।
सुन्न मीलों मील फैली
उदास राह गाँव की
ताकती रस्ता उसका
लील जिसे गया शहर।
ताल पर पसरा कुहासा
सूर्य ने भेजी किरण
तरु-पत्रों से छन बिखरी
कण कण पुनः किया उज्जर।
अंगड़ाई ले उठी ख़ुशी
अरसे से जो सिमटी पड़ी
आज फिर से वक़्त पर
भारी हुआ धैर्य का स्वर।

Thursday, September 3, 2015

हर सुख 
एक क़त्ल का हासिल है
क़त्ल अहं का 
ख्वाहिशों का ...
उपजता है हर सुख 
दर्द के घूँट से.
जैसे धरती की कोख में
सड़ते गलते पत्तों 
और पंक दलों से 
उपजते है नवांकुर।
जैसे ताप सहकर
धातु लेती है आकार।
जैसे शिल्पी के हथौड़े के 
अनगिन प्रहार सहकर
साकार होती है
प्रतिमा कोई और 
पूजी जाती है
बरस दर बरस।

कांच का रिश्ता

नाज़ुक कच्चा
प्रेम, कांच का रिश्ता
रुई फाहे में
रख कर संभाल।
ज़रा ठसक
किरचों में बिखरे
जीवन भर
चुभे हृदय शूल।
ओस की बूँद
सूर्य से होे वाष्पित
चाहे छाया।
पौध सा सुकोमल 
वृद्धि को चाहे
नर्म स्निग्ध छुअन
घट भर विश्वास ।

Wednesday, March 25, 2015

वफा और सब्र के 
महीन धागों से 
बिंधती उंगलियां
रफू करती रहीं
दिनोदिन
बरस दर बरस...
दिख न जाएं किसी को 
रिश्तों के खौंते।
ताने-बानों में उलझते
चढ़ते उतरते
गूंथे गए महीन धागे,
सारे एब छिपाते
बुन गए नई चादर,
जिसमें दिखने लगे
रंग प्रेम के
वो उंगलियां मगर
अब सुन्न हो गई हैं।

Monday, March 9, 2015

वक्त - क्षणिकाएं

मौन प्रश्न 
पाएं न उत्तर
वीरान निगाहों में 
कितना बेबस 
कितना कातर 
इंसा वक्त की बाहों में।

x-x-x
टुकड़ा टुकड़ा
कतरा कतरा
जीवन बीना
भरी टोकरी
खूब सहेजा
रह जाएगा बिखरा सब ही
वक्त की राहों में.....


x-x-x
लम्हे जो छप गए दिल पर
उम्र बीते वो बीतते ही नहीं,
ज़ख्मों से रिसता है दर्द
कुछ गम हैं जो रीतते ही नहीं,
वक्त ही नश्तर वक्त ही मरहम 
वक्त से हम कभी जीतते ही नहीं।

Saturday, March 7, 2015

न हारी है, न हारेगी


सूजे पपोटों पर
ठंडे पानी के छींटें
दो लकीरें काजल,
अधरों को छू
हल्के से रंग से;
दफ्न कर गुबार दिल के
उलझी सी स्मित में,
है फिर तैयार
नज़र नभ पर
वो अष्टभुजा
चीर हर जंगल
निकल आएगी
अपने संसार को
तराशेगी फिर
कितने हों दलदल
बाहर आएगी
न हारी है, न हारेगी।
कहते हैं वो
जागी है स्त्री
हुई है सजग!
अरे बंधुओं
ये संज्ञान हो
वो सोई नहीं
एक रात भी;
उदार धीरज
की प्रतिमा रही
सहती रही सदियों
सितम पर सितम
बिखर कर भी
शक्ति सहेजे रही
भीतर ही भीतर
खुद से लड़ी
हुई अब अति
न सह पाएगी
दुनिया को अब दिखलाएगी
जीतेगी वो
फिर मुस्काएगी।

मैं हर एक हूँ

मैं हर एक हूँ
मुझमें सब हैं
बहता दरिया हूँ
आग भी मेरा सबब।
जीती हूँ दर्द
ओढ़ती बिछाती हूँ
छान तलछट को
मोती पाती हूँ
मैं औरत हूँ
नई सदी की
मुझे पहचानो न अब।
देह मात्र नहीं
भीतर बाहर
परे स्पर्श से
अविनाशी अमर
एक आत्मा
पुंज शक्ति का
देखो जागी मैं अब।