मौन संवेदनाएं
व्यक्त होती थी एक आलिंगन से,
एक स्पर्श कह जाता था
सब मन के भाव..।
वो जादू की झप्पी
जो रूठों को मनाने के काम आती थी
कितना कुछ खो दिया इस साल में।
मास्क लिपटे चेहरों पर
मुस्काने नहीं दिखती
आँखों मे बसा है भय संशय
जिसने ठेल दिया मुस्कानों को
दरवाज़े की घण्टी बजते ही
तन जाती हैं भौहें...
एक दूसरे पर जाती है दृष्टि
मन मे सवाल उत्पन्न करती
हाथ पहले बढ़ते थे दुपट्टे की ओर
अब मास्क उठाते हैं यंत्रवत।
नवजात के परिवार में आते ही
दौड़ जाते थे पाँव
उसे देखने, असीसने और
गोद मे झुलाने
अब फोटो और वीडियो कॉल
देते हैं तसल्ली...
कहाँ दें पाएंगी
आभासी मुलाकातें वो खुशी
जो उसे बांहों में भर होती,
सहमे हुए रिश्ते
दूर खड़े हो देखते हैं
फ़िक्रमंद अपने से
अपनों के लिए
कितना कुछ बदल गया है।
Bhawna Saxena