Wednesday, June 3, 2020

ठहरा मनुज

नदी कलुषित थी बहुत
ठहरा मनुज,
गर्द सारी बह गई
साँस घुटती थी जिसमें
वायु भी तो स्वच्छ
स्वयं ही हो गई
है धरा निखरी नई सी
सुबह शीतल ताज़गी है
रात ओढ़े तारे जगमग
खिले-खिले बाग उपवन
हो रहे हर्षित सभी
ज़िन्दगी सहमी हुई बस
फिर भी कहना है यही
वक्त थोड़ा और ठहर
मैल मन में है अभी...
है अति आडम्बर की
सोखनी है विनय अभी
स्व को अब तक पोसता जो
बीजने को करुणा उसको
वक्त लगेगा अभी
मैं मेरे के फेर से पाए निकल
उस ठौर का रास्ता बड़ा लम्बा अभी।

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