Wednesday, December 9, 2020

शिकायत

 बड़ी हुई है नाइंसाफी

राजधानी का रुख करते हैं,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।


हों बीमार, या शोकाकुल हों

हम तो रस्ता रोकेंगे जी

कहीं कोई फंस जाए हमे क्या

अपनी जिद पर हम डटते हैं।


सत्ता ने ठानी सुधार की

वह तो अपने लिए नहीं जी

वंचित का चूल्हा बुझ जाए

हम अपने कोष हरे रखते हैं।


सब्सिडी भी लेंगे हम तो

टैक्स रुपए का नहीं चुकाएं

कर देने वाले, दे ही देंगे

तोड़-फोड़ हम तो करते हैं।


सरकारों से बदला लेने

देश हिला कर हम रख देंगे

हम स्वतन्त्र मन की करने को

आम जनों को दिक करते हैं।


हमको बल ओछे लक्ष्यों का

कुर्सी के लालच, पक्ष हमारे

अपनी बुद्धि गिरवी रखकर

हम कठपुतली से हिलते हैं।


बड़ी हुई है नाइंसाफी

राजधानी का रुख करते हैं,

सत्ता से हैं बहुत शिकायत

सड़कें जाम चलो करते हैं।


भावना सक्सैना


Thursday, October 29, 2020

आँगन निराला

 कुछ धुंधली तस्वीरें हैं

कुछ यादें बड़ी पुरानी हैं

अम्मा के फैले आँगन की

प्यारी सी ये कहानी है।


पक्की ईंटों से बिछा हुआ

वो आँगन बड़ा निराला था

द्वार सदा था खुला हुआ

हर मुंह को वहाँ निवाला था


नीम तले पुरवइया में

कुछ पीढों और खटोलों में 

सुख-दुख साझा  हो जाते थे 

कुछ झूलों और झिंगोलों में।


मन की बातें, चुभती फांसें

सब निकल, वहां मिलती साँसें

सब दर्द विकल बह जाते थे

भोली निश्छल मुस्कानों में


उस घर में जो कोई आता था

हर जन से प्रेम का नाता था

रिश्तों के गहरे  सागर में

मन तीर्थ से गोते लगाता था।


जब जब सोचा उसको, पाया

वो और कहीं की बातें हैं

अब वैसे आँगन नहीं कहीं

बस मतलब हैं और घातें हैं।


अब यादें हैं और कहानी है

कि गुड़िया हुई सयानी है

यह जीवन कितना क्षण भंगुर

मानो बहता हुआ पानी है।




Sunday, August 16, 2020

 तपती हवाओं में 

बर्फ की फ़िज़ाओं में

मेह, आंधी, धूप में

जो डटा खड़ा रहा

उसे नमन करें चलो।


पीर पर पा विजय

भूल नाते सभी

बस वतन को याद रख

सरहद पर डटा रहा

उसे नमन करें चलो।


शौर्य प्रतिमा बना

शत्रु के वार संग

घात भीतर की सह

जो अचल खड़ा रहा 

उसे नमन करें चलो।


वीर वो देश का

धीर वो देश का

गर्व वो देश का

उसकी लेकर बलाएँ

दे दुआएँ मन से चलो।


है स्वतंत्र देश तो

कर्ज़ उनका है ये

कि जान वो लुटा गए

हो गए जो अमर

उन्हें नमन करें चलो।


भावना सक्सैना


Tuesday, July 28, 2020

डर


निडर, निर्भीक
जीवन के आरंभिक वर्ष
जब कुछ पाया न था
डर का अस्तित्व नहीं था
न किसी से, न कुछ खोने का
खोजने, जानने को चल देते थे पाँव
और दौड़ता था मस्तिष्क बेलगाम।
ज्यों-ज्यों अर्जित किया जीवन
डर ने दबे पांव आहिस्ते से
बना लिया अपना स्थान...
लेकर ओट प्रेम की
कि प्रेम में पलते हैं संशय
कि प्रेम होता है जितना उदार
उतनी ही ये दुनिया संकुचित।
कि प्रेम में खोना भी पाना तो है
किंतु पाने में भी खोने का भय,
सतत पथ पर जुड़े, बने, पले
संबंध अमूल्य
डर बढ़ा, बढ़ता गया...
सफ़लता की हर डगर
सौंपती रही कोई नया डर
मन ये जानता तो है
कुछ नहीं शाश्वत विश्व में
फिर भी डरा रहता है
हाँ, सब है तो डर भी है!
निकाल नहीं पाती
उसे अजनबी की तरह
कि जुड़ा है उन सब से
जिनसे करती हूँ प्रेम।
और एक डर यह भी
कि कहीं किसी रोज़
अचानक खुल जाए आँख
पाऊँ खुद को कहीं
और आभास हो कि
जो जीवन जी रही अभी
किसी और युग का
वह स्वप्न तो नहीं।

Tuesday, June 9, 2020

ये बदले से दिन



मौन संवेदनाएं
व्यक्त होती थी एक आलिंगन से,
एक स्पर्श कह जाता था
सब मन के भाव..।
वो जादू की झप्पी
जो रूठों को मनाने के काम आती थी
कितना कुछ खो दिया इस साल में।

मास्क लिपटे चेहरों पर
मुस्काने नहीं दिखती
आँखों मे बसा है भय संशय
जिसने ठेल दिया मुस्कानों को
दरवाज़े की घण्टी बजते ही
तन जाती हैं भौहें...
एक दूसरे पर जाती है दृष्टि
मन मे सवाल उत्पन्न करती
हाथ पहले बढ़ते थे दुपट्टे की ओर
अब मास्क उठाते हैं यंत्रवत।

नवजात के परिवार में आते ही
दौड़ जाते थे पाँव
उसे देखने, असीसने और
गोद मे झुलाने
अब फोटो और वीडियो कॉल
देते हैं तसल्ली...
कहाँ दें पाएंगी
आभासी मुलाकातें वो खुशी
जो उसे बांहों में भर होती,
सहमे हुए रिश्ते
दूर खड़े हो देखते हैं
फ़िक्रमंद अपने से
अपनों के लिए
कितना कुछ बदल गया है।

Bhawna Saxena

Wednesday, June 3, 2020

क्षणिकाएँ

1.
धूप से तुमको बचाया
हुलसी तुम्हारी छाँव में
बाँध ली ज़ंजीरें खुद ही
उसने अपने पाँव में

2.

कल उलीचा था बहुत
मन से धुँआ जाता नहीं है
हो शमा कितनी भी रोशन
मन जगमगाता ही नहीं है।

ठहरा मनुज

नदी कलुषित थी बहुत
ठहरा मनुज,
गर्द सारी बह गई
साँस घुटती थी जिसमें
वायु भी तो स्वच्छ
स्वयं ही हो गई
है धरा निखरी नई सी
सुबह शीतल ताज़गी है
रात ओढ़े तारे जगमग
खिले-खिले बाग उपवन
हो रहे हर्षित सभी
ज़िन्दगी सहमी हुई बस
फिर भी कहना है यही
वक्त थोड़ा और ठहर
मैल मन में है अभी...
है अति आडम्बर की
सोखनी है विनय अभी
स्व को अब तक पोसता जो
बीजने को करुणा उसको
वक्त लगेगा अभी
मैं मेरे के फेर से पाए निकल
उस ठौर का रास्ता बड़ा लम्बा अभी।

ताकि सनद रहे

बड़ी कॉलोनियों के सुरक्षित भवनों में
भरे पेट समाचारों की जुगाली करते ज्ञानी
नहीं समझ पाएंगे क्यों जुट जाती है भीड़
आनंद विहार और बांद्रा पर
सर पर गठरी-पोटली  उठाए
डामर पर चलते सूजे हुए पांवों का दर्द
और मन में धंसी फांस की चुभन
उन्हें भेद नहीं पाएगी
वे गरियाएँगे उनकी बेअकली पर
पाठ पढ़ाएंगे दूरी और मास्क के
बताएंगे मुफ्त राशन और भोजन की स्कीमें...

इन सबसे परे
चलते रहेंगे कुछ पाँव, कि
उन्हें नहीं आती सियासत
वे बस घर की सोचते हैं
और चल पड़ते हैं
अपने घर सर पर उठाए
उन्हें डर बीमारी से नहीं
भूख की भी आदत है उन्हें
वे डरते नहीं भूख से
डर है बड़े शहर में लावारिस मौत का
हर तरफ सुरसा सी मुँह फैलाए
उसमें समा जाने के पहले
वो देखना चाहते हैं
अपने दुधमुंहे का मुँह
छूना चाहते हैं उस दीवार को
जिसके लिए दो महीने पहले ही
 किया था मनी आर्डर
वो जानते हैं कि मृत्यु रुकती नहीं
लेकिन मरना चाहते हैं अपनों के बीच
ताकि सनद रहे नातेदारों को कि
दुनिया से कूच कर गए हैं।

बची रहेगी धरा

बची रहेगी धरा

मैं और तुम
जब बैठे हैं सुरक्षित घरों में
कुछ लोग जूझ रहे है
विकट परिस्थितियों में
वो थामे हैं मानवता,
स्वार्थ को कर किनारे ज़रा
बस उन्हीं के जीवट से बची रहेगी ये धरा

बिखरते तिनकों को
समेट सहला रहे हैं जो
उनकी बातों में जादू है झोले में दवा
वक्त कैसा भी आए बुरा
उनसे टकरा कर जाएगा बिखर
वो रोपते रहेंगे विश्वास
और बची रहेगी ये धरा।

कुछ बीज रोपे थे
नरम हथेलियों ने मिट्टी थपका
एक रोज़ आँधियां जब आतुर हो
गिराने लगेंगी सूखे दरख़्त पुराने
नए पौधे फैलाकर जड़ें अपनी
बांध लेंगे मृदा
उन मासूम हथेलियों की
ऊष्मा से बची रहेगी ये धरा।

राजनीति एक दूसरे को गिराने जब
खोज रही होगी तुरुप का इक्का
बुद्धिजीवी जब गढ़ रहे होंगे सिद्धांत
देश के किसी कोने में चुपके से
देकर लहू अपनी शिराओं से
कोई सैयद बचा लेगा एक सुलोचना
जिसे सुन हर कोई उठेगा मुस्कुरा
बस इसी मुस्कान से बची रहेगी ये धरा।

हज़ार नफरतों के बीच
रहेंगे कुछ हाथ
जो बिन पूछे धर्म और जात
बांटते रहेंगे प्रेम
और जीती रहेगी उम्मीद
एक कतरा प्रेम मुट्ठी में भींच
उसी कतरे में श्वास ले
जीत जाएगी वक्त से और जीती रहेगी धरा।

घर खुश है

दीवारों के रंग खिल रहे हैं
वे नेहभरी नज़रों में नहाई हैं
घर खुश है कि अब तक
उसे संवारा जाता था
अब उसमें रहा जा रहा है।

गमलों के पौधे मुस्कुरा उठे हैं
उन्हें दिल से पुकारा जा रहा है
रसोई में उठ रही, सौंधी महक
आनंदित हो  रहा है घर
उसमें जीवन निखारा जा रहा है।

कहीं किलकारियां हैं
अनहद नाद कहीं
चहकते, मचलते बालकों की
बातों से, गीतों से घर खुश है,
हर कोना गुनगुना रहा है।

सज रही हैं दीवारें इस मौसम
रंग कागज़ पर उतार कहीं
दिन संवारा जा रहा है
घर खुश है उसमें
इंद्रधनुष उतारा जा रहा है।

हौसले की तदबीरें

आसमान साफ है
और उस में स्पष्ट है
भविष्य पर लगा
बड़ा काला प्रश्नचिह्न
जिसके पार फैला है
अंतहीन कोहरा।
टेलीविजन भरा हुआ है
मौत, उदासी, भूख और
बेबसी की तस्वीरों से
बेइंतेहा दुखों और
दूर तलक पसरी उदासी की
घनघोर घटाओं के बावजूद
मैं नहीं लिखूंगी
आँसुओं के गीत।

मैं नहीं कहूंगी कि
खतम हो चली है इंसानियत
क्योंकि जो बचा है
वही इंसानियत है
वही करुणा है
और वही है प्रेम।
यकीन मानो न होता
तो कुछ बचा ही न होता।

मन होता तो है उद्वेलित
तब कस लेती हूँ जिरह बख्तर
मजबूत करती हूँ दुर्ग मन का
कि अनचीन्हा भेद न पाए
होते ही चाक-चौबंद
सहसा भीतर से कह उठता कोई
सुनो... यहाँ रुकना मत
तुम लाँघ जाना
इस मीलोमील पसरे
कोहरे भरे आसमान को
उस आशा के पंख पर तिर
जिसे रखता है मन सहेज
घोर अंधेरों में महफूज़
कि अभी लिखनी हैं
हिम्मत और आशा की तदबीरें
लिखनी हैं पातियां
उन योद्धाओं के नाम
जो डटे हैं छोड़ अपने घर बार
तुम जो ठहरे हो
उन्हें बल मिलता है
कि ज़िन्दगी दरिया है
जो बहता रहता है।
कि हौसले की नाव पर
सवेरा रहता है।

सरकार चिंता में है
किंतु संतुष्ट है कि
"लोग कम मर रहे हैं"
मुझे कम सुनाई नहीं देता
सिर्फ सुनाई देता है
"लोग मर रहे हैं"

सिखा समझा दिया सरकार ने
कितने दिन रखेंगे ,
तुमको ही करना है सम्भाल...
दूरी, संयम उन्हें समझ नहीं आता
वे बस सुनते हैं
लॉकडाउन खुल रहे हैं।

उन्हें नहीं आता संयम से रहना
बाड़े से छूटे भूखे हैं वे
ज़िन्दगी में फिर रस आ गया
जब से सुना अर्थव्यवस्था
सशक्त करने के रास्ते खुल रहे हैं

अकेले...असहाय, निरुपाय
घर को निकले थे वे पाँव-पाँव
थक कर क्या लेटे
उठ नहीं पाए फिर कभी
सुना तो उन्होंने यही था
रेल के पहिये नहीं चल रहे हैं।

रेल नहीं थी काल था वो
पीछा कर रहा था
रूप बदल कहीं भी धरता है
लोमहर्षक सच तो यही है
विमर्श हाँ, कई चल रहे हैं।

भूख, महामारी, गैस रिसाव
सृष्टि रच रही है जाल कई
अब धरती पर जल कम है
प्रलय के शायद
रूप नए निकल रहे हैं।

Bhawna Saxena

Saturday, May 16, 2020

हौसला रख

माना के पर हैं बंधे हुए

सिमटी हुई परवाज़ है

कुछ मुश्किलें हैं राहों में

बैरी खड़ा बेआवाज़ है।


माना हवा प्रतिकूल है

ठहरा हुआ सब इस घड़ी

मिलने मिलाने पे रोक है

खुली श्वास पर ऐतराज है...
 

माना है मृत्यु लीलती

हर ओर तांडव कर रही

माना स्वयं को निखारने

प्रकृति खेल भीषण रच रही

 

पर हौसला रख तू है बड़ा

जो आज तक यूँ खड़ा हुआ

हों मुश्किलें कितनी विकट

तेरा जुदा अंदाज़ है।


दम साध फिर तू, बढ़ता चल

न आपदा से हो विकल

जो साध लेगा मन अगर

फिर ज़िन्दगी एक साज़ है।


माना के दरिया पीर का

है खींचता बन कर भँवर

वो थाम लेगा हर घड़ी

         जो विश्व का सिरताज है।


-भावना सक्सैना 


Monday, March 16, 2020

जन्म

माया के बंध खोल
वांछाओं, स्पृहाओं की
काटकर नाल
खींचते ही एक मुक्त श्वास
होता है जन्म नया...

भोर की पहली किरण से पहले
आँख खुलते ही
अदृश्य सर्वशक्तिमान को
कर निवेदित प्रणाम
आशीष पाकर खिलते ही
होता है जन्म नया...

ज़िंदगी के किसी ज़ख्म से हार
टूटने लगता है जब हौसला
और उठ खड़ी होती हूँ
फिर एक बार
उस पल में
होता है जन्म नया...

संसार में आविर्भाव का दिन
शायद एक घटना भर है
या घटना से है ज़रा ऊपर
विचारता है मन बार-बार
क्या यह बस एक घटना नहीं?
ठीक वैसे ही, जैसे
मृत्यु है, एक घटना!

इन दोनों ही घटनाओं पर
किसी का नहीं अख्तियार
किंतु बीच का बहुत सा जीवन
गुज़र जाता है
पल पल देते जन्म नया।
इन पलों को पहचानना
मुठ्ठी में भींच लेना
देखना, होगा ऐसे हर पल में
हर दिन एक जन्म नया।

Saturday, March 14, 2020

अक्सर

अक्सर कोई कह देता है उससे
तुम्हें देखा था उस रोज़... वहाँ पर
वह मुस्कुरा देती है, उसने नहीं देखा होता
कह नहीं पाती कि वह वहाँ नहीं थी
क्योंकि थी तो पर थी नहीं
कि अकसर जब
सामने होता है विस्तृत संसार
वह कुछ देख नहीं रही होती
आँखों के सामने जो घट रहा होता है
वह फिसलता जाता है
चिकनी सतह पर दो बूँद द्रव्य सा,
वो होती है किसी और ही यात्रा पर
अक्सर रह जाती है असहज सी, कि
उसे अब भी नहीं आया मुखौटे संभालना
न उदासी और खुशी की तहें बिठाना
समेट नहीं पाती एक साथ दो बैरनें
न आया सलीका सबसे हाथ मिलाने का
दिल में बैर रख खिलकर मुस्कुराने का...
रूठे हुओं को वह मना न सकी
कि उनकी पसन्द के गीत गा न सकी
जो गलत लगा उससे दामन छुड़ा लिया
सहा नहीं गया सभ्यता का दोगलापन
नहीं रम पाई महफिलों में
कि उसके पास है बस एक ही मन।



लोग डर रहे हैं
डर रहे हैं अपनो से भी
कि स्वहित सर्वोपरि है।
सड़क बाजार खाली हैं
बच रहे हैं लोग कहीं जाने से
अपना रहे हैं हर उपाय।
राष्ट्र अपने हितों के लिए
संगरोध में जा रहे हैं।
विश्व की सारी शक्तियाँ केंद्रित हैं
एक सूक्ष्म जंतु से बचाव पर...

सोच रहा है हर कोई
लगा रहा है अपने अनुमान

डरो मत दुनिया के लोगों
कि डर न तो बचाव है
और न ही कोई विकल्प
कि मृत्यु तो  तय है
उसी रोज़ से जब जन्मा तन
तुम्हें लगता है असमय
कौन कह सकता है
शायद यही समय हो...

कि धरती को झटकना है
अपना अतिरिक्त भार
प्रकृति को लेनी है करवट
फैशन की तरह
बदलना है अपना लिबास
और प्रकृति भेद नहीं करती
धन से, धर्म से या तन के रंग से
मन की स्वच्छता
आत्मा की शुद्धता का
तब भी हो सकता है कोई खेल
बाकी उसके लिए सब बराबर हैं
इसलिए ठहरो और सांस ले लो
कि जंग कोरोना से नहीं
जंग जीवन से है... आज से नहीं
ये सदियों से है
लुप्त हो जाती हैं जातियां प्रजातियां
और ठहरे रह जाते है कुछ
डरो मत...सतर्क रहो
उससे भी ज़्यादा सहज रहो
प्रकृति चुन ही लेगी
अपने हित को अपने आप

भावना सक्सैना

Friday, March 6, 2020

थक गई हैं उँगलियाँ
मोबाइल से डिलीट करते
ज़हरभरी तस्वीरें
आग, कत्ल और
वहशियत की तदबीरें।

दिन गुज़रते-गुज़रते
तस्वीरें खौफ की
बढ़ती ही जाती हैं
हर नई तस्वीर पहली से
भयावह नज़र आती है।

हैरान हूँ खोजे जा रहे हैं
लाशों पर धर्म के निशां
बेआवाज़ तनों में तो
बस दर्द की तड़प
मौत की चीख सुनी जाती है!

खौफ से फैली आँखों के
पथरा जाने से पहले
टपके होंगे सपने लहू बनकर
कि वो जानती थीं उनके बाद
बिखर जाएगा सारा घर।

छोटे-छोटे कामों को निकले
भरोसा थे किसी के कल का
भेंट चढ़ गए वहशियत की...
इंतज़ार करती आँखों का दर्द
दरिंदों को पिघला नहीं पाता है।

दर्द चेहरे पर, सूखे आँसू
खो ज़िंदगी की पूँजी
राख में बीनती कुछ
उँगलियों को देख
लहू आँखों में उतर आता है।

कौन दोषी है ?
कहीं तुम भी तो नहीं
कि कुत्सित बातें सुन
बीज अविश्वास का
मन में तो पनप जाता है!